सरहद-ए-पाक पर
सब्ज़ परचम फ़ज़ाओं में लहरा रहा है
जवानान-ए-मिल्लत के
एहसास-ओ-जज़्बे को गरमा रहा है
ये मेरा वतन है मिरी सरज़मीं है
जिसे मैं ने अपने लहू की
हरारत से नग़्मे की लय
रूह की ताज़गी सरख़ुशी
चाँद की रौशनी दिलकशी
इश्क़ का वलवला हुस्न का बाँकपन
अज़्म की पुख़्तगी बख़्श दी है
मुझे याद है
आज़माइश की ख़ूनी घड़ी
रौंदने आई थी
अपने नापाक क़दमों से अर्ज़-ए-वतन
एक दीवार फ़ौलाद-ओ-आहन से टकराई जब
सर्द लाशों के अम्बार उस का मुक़द्दर बने
और तारीख़ का फ़ैसला हो गया
ये मेरा वतन
जिस की तारीख़ का हर वरक़
जाँ-निसारों जियालों जवानों की
रस्म-ए-शुजाअ'त की इक दास्ताँ है
जिसे आने वाली नई नस्ल दोहराएगी
यही ज़िंदा क़ौमों की तारीख़ है
जिस ने हर दौर में
सरफ़रोशी शहादत वतन की मोहब्बत को
उनवाँ बना कर
नए अह्द की दास्ताँ को मुकम्मल किया है
यही मेरी तारीख़ का इक वरक़ है
जिसे कल भी मैं ने लिखा था
आज भी लिख रहा हूँ
जिसे आने वाले ज़माने का
हर नौजवाँ गर्म ख़ूँ से लिखेगा
स्रोत:
Sahba Lakhnavi : Shakhsiyat Aur Adabi Khidmaat (Pg. 282)
-
- प्रकाशक: इरतिक़ा मतबूआत, कराची
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.