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तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

सरमद सहबाई

तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

सरमद सहबाई

MORE BYसरमद सहबाई

    रोचक तथ्य

    (Seep, Karachi, Volume 26, May-June 1973)

    तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

    ज़िंदगी मौत के दरमियाँ एक लम्हे के पुर-हौल रस्ते पे तू ने

    हमें मुंतज़िर कैसे रखा

    तुझे किस ने रोका बता

    तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

    रास्तों पर हवाओं में ख़्वाहिश की ख़ुश्बू

    तिरे लम्स की चाहतों में भटकती रही

    और मजबूर जिस्मों में फैली बग़ावत की बू

    तेरे आज़ाद हाथों की हसरत में अंधी फ़सीलों से लड़ती रही

    तेरे साँसों की दस्तक

    सियह-बख़्त गलियों में सूरज के रुदन सुनाती रही

    तेरे क़दमों की आहट

    जवाँ-साल सीनों के अंदर धड़कती रही

    किस ने रोका तुझे

    बोल तू ने हमें मुंतज़िर कैसे रक्खा

    बता तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

    बूढ़ी माएँ दुआओं की शफ़्फ़ाफ़ चादर तिरे वास्ते

    अपनी साँसों से दिन-रात बुनती रहीं

    लड़कियाँ और लड़के

    चौराहों दोराहों पे अपने लहू से तिरा नाम लिखते रहे

    ज़र्द बच्चे हथेली पे उजली उमीदों के फूलों को ले कर

    तिरी राह तकते रहे

    किस ने रोका तुझे

    बोल तू ने हमें मुंतज़िर कैसे रक्खा

    बता तेरी आमद में ताख़ीर कैसे हुई

    सर्द आँखों के गदले उफ़ुक़ पर

    तिरे अक्स के चाँद की राख उड़ती है

    अंधी फ़सीलों के नीचे हुमकते हुए ख़ून के जलते बुझते हुए

    जुगनुओं का धुआँ है

    जवाँ-साल सपनों की क़ब्रों में काली हवा सरसराती है

    और तेरी आमद की ख़्वाहिश में जीते हुए लोग

    जिस्मों पे खिंचते हुए सख़्त सफ़्फ़ाक लम्हों में महसूर

    ख़्वाबों की दहलीज़ पर मर चुके हैं

    थकी हारी आबादियाँ ख़ामुशी का कफ़न ओढ़ कर

    मौत में सो रही हैं

    चौराहों दोराहों पे लिक्खा हुआ नाम कोई नहीं जो पड़ेगा

    कोई नहीं जो अँधेरी फ़सीलों से कर लड़ेगा

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