वादी-ए-पिन्हाँ
वक़्त के दरिया में उट्ठी थी अभी पहली ही लहर
चंद इंसानों ने ली इक वादी-ए-पिन्हाँ की राह
मिल गई उन को वहाँ
आग़ोश-ए-राहत में पनाह
कर लिया तामीर इक मौसीक़ी ओ इशरत का शहर
मश्रिक-ओ-मग़रिब के पार
ज़िंदगी और मौत की फ़र्सूदा शह-राहों से दूर
जिस जगह से आसमाँ का क़ाफ़िला लेता है नूर
जिस जगह हर सुब्ह को मिलता है ईमा-ए-ज़ुहूर
और बुने जाते हैं रातों के लिए ख़्वाब के जाल
सीखती है जिस जगह पर्वाज़ हूर
और फ़रिश्तों को जहाँ मलता है आहंग-ए-सुरूर
ग़म-नसीब अहरीमनों को गिर्या-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ
काश बतला दे कोई
मुझ को भी इस वादी-ए-पिन्हाँ की राह
मुझ को अब तक जुस्तुजू है
ज़िंदगी के ताज़ा जौलाँ-गाह की
कैसी बे-ज़ारी सी है
ज़िंदगी के कोहना आहंग-ए-मुसलसल से मुझे
सर-ज़मीन-ए-ज़ीस्त की अफ़्सुर्दा महफ़िल से मुझे
देख ले इक बार काश
उस जहाँ का मंज़र-ए-रंगीं निगाह
जिस जगह है क़हक़हों का इक दरख़्शंदा वफ़ूर
जिस जगह से आसमाँ का क़ाफ़िला लेता है नूर
जिस की रिफ़अत देख कर ख़ुद हिम्मत-ए-यज़्दाँ है चूर
जिस जगह है वक़्त इक ताज़ा सुरूर
जिस जगह अहरीमनों का भी नहीं कुछ इख़्तियार
मश्रिक-ओ-मग़रिब के पार
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