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वादी-ए-पिन्हाँ

नून मीम राशिद

वादी-ए-पिन्हाँ

नून मीम राशिद

MORE BYनून मीम राशिद

    वक़्त के दरिया में उट्ठी थी अभी पहली ही लहर

    चंद इंसानों ने ली इक वादी-ए-पिन्हाँ की राह

    मिल गई उन को वहाँ

    आग़ोश-ए-राहत में पनाह

    कर लिया तामीर इक मौसीक़ी इशरत का शहर

    मश्रिक-ओ-मग़रिब के पार

    ज़िंदगी और मौत की फ़र्सूदा शह-राहों से दूर

    जिस जगह से आसमाँ का क़ाफ़िला लेता है नूर

    जिस जगह हर सुब्ह को मिलता है ईमा-ए-ज़ुहूर

    और बुने जाते हैं रातों के लिए ख़्वाब के जाल

    सीखती है जिस जगह पर्वाज़ हूर

    और फ़रिश्तों को जहाँ मलता है आहंग-ए-सुरूर

    ग़म-नसीब अहरीमनों को गिर्या-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ

    काश बतला दे कोई

    मुझ को भी इस वादी-ए-पिन्हाँ की राह

    मुझ को अब तक जुस्तुजू है

    ज़िंदगी के ताज़ा जौलाँ-गाह की

    कैसी बे-ज़ारी सी है

    ज़िंदगी के कोहना आहंग-ए-मुसलसल से मुझे

    सर-ज़मीन-ए-ज़ीस्त की अफ़्सुर्दा महफ़िल से मुझे

    देख ले इक बार काश

    उस जहाँ का मंज़र-ए-रंगीं निगाह

    जिस जगह है क़हक़हों का इक दरख़्शंदा वफ़ूर

    जिस जगह से आसमाँ का क़ाफ़िला लेता है नूर

    जिस की रिफ़अत देख कर ख़ुद हिम्मत-ए-यज़्दाँ है चूर

    जिस जगह है वक़्त इक ताज़ा सुरूर

    जिस जगह अहरीमनों का भी नहीं कुछ इख़्तियार

    मश्रिक-ओ-मग़रिब के पार

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