ये यक़ीं ये गुमाँ
कनार-ए-आब सर-ए-शाम आ के बैठा हूँ
नज़र में सब्र से बेगाना इक समुंदर है
उभरता दबता मचलता बिफर के बढ़ता हुआ
कभी उतरता हुआ और उतर के चढ़ता हुआ
तमाशा सई-ए-जुनूँ-ख़ेज़ का दिखाता हुआ
तिलिस्म-ए-फ़िक्र से अपनी तरफ़ बुलाता हुआ
कनार-ए-आब सर-ए-शाम आ के बैठा हूँ
नज़र में एक हुजूम-ए-जिगर-फ़िगार लिए
दिल-ओ-दिमाग़ में सौ उलझनों का बार लिए
नफ़स नफ़स में ग़म-ए-ज़ीस्त के शरार लिए
ख़याल-ओ-फ़िक्र-ओ-तजस्सुस का ख़लफ़शार लिए
यक़ीं का जोश लिए वहम-ए-शो'ला-बार लिए
कनार-ए-आब सर-ए-शाम आ के बैठा हूँ
नज़र में एक अजब दिल-फ़रेब मंज़र है
वहाँ पे दूर ज़रा दूर कुछ ज़रा आगे
उफ़ुक़ से हाथ मिलाता हुआ समुंदर है
वहाँ पे है कोई कमतर न कोई बेहतर है
मदार-ए-ज़ीस्त वहाँ तो बराबरी पर है
वहाँ न है कोई ज़ुल्मत न कोई मायूसी
हर एक ज़र्रा वहाँ रौशन-ओ-मुनव्वर है
पहुँच गया है जो उस अंजुमन में ख़ुश-तर है
मैं सोचता हूँ कि एक जस्त में पहुँच जाऊँ
उस एक जस्त में जो फ़ासलों की दुश्मन है
वहाँ हयात जहाँ क़हर है न उलझन है
मगर ठहर ज़रा ऐ दिल ये सोच लूँ पहले
पहुँच गया जो मैं उस सरहद-ए-निगाह तलक
वहाँ पहुँच के अगर आह ऐसा हो जाए
नज़र के सामने जो कुछ था महज़ धोका था
वो इक हसीन तसव्वुर था जो कि देखा था
वो हद जहाँ कि समुंदर उफ़ुक़ को छूता था
कुछ और बढ़ गई आगे जो सरहद-ए-इम्काँ
मदार-ए-ज़ीस्त भला फिर बनाएँगे किस को
ख़िरद की मंज़िल-ए-आख़िर बनाएँगे किस को
ख़िरद की मंज़िल-ए-आख़िर न मिल सकेगी कभी
मगर ये ज़ीस्त तो फिर भी गुज़ारनी होगी
लगा दूँ जस्त कि ये सरहद-ए-निगाह बहुत
हसीन लगती है कल क्या हो ये किसे मालूम
कनार-ए-आब सर-ए-शाम आ के बैठा हूँ
यक़ीं का जोश लिए अज़्म का ख़ुमार लिए
जुनून-ए-शौक़ लिए फ़िक्र-ए-होशियार लिए
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