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अफ़ीफ़ सिराज

1979 | दिल्ली, भारत

अफ़ीफ़ सिराज के शेर

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रह गया दर्द दिल के पहलू में

ये जो उल्फ़त थी दर्द-ए-सर हुई

कैसी हैं आज़माइशें कैसा ये इम्तिहान है

मेरे जुनूँ के वास्ते हिज्र की एक रात बस

शुक्रिया तुम ने बुझाया मिरी हस्ती का चराग़

तुम सज़ा-वार नहीं तुम ने तो अच्छाई की

जब बात वफ़ा की आती है जब मंज़र रंग बदलता है

और बात बिगड़ने लगती है वो फिर इक वा'दा करते हैं

इस क़दर डूबे गुनाह-ए-इश्क़ में तेरे हबीब

सोचते हैं जाएँगे किस मुँह से तौबा की तरफ़

बस्ती तमाम ख़्वाब की वीरान हो गई

यूँ ख़त्म शब हुई सहर आसान हो गई

कुछ ख़ुद में कशिश पैदा कर लो कि महफ़िल तुम से आँख भरे

ये चाल बड़े अय्यार की है ये चाल ख़ाली जाएगी

मिरी ग़ैरत-ए-हमा-गीर ने मुझे तेरे दर से उठा दिया

कुछ अना का ज़ोर जो कम हुआ तो ख़बर हुई तू ख़ुदा सा है

कब से माँग रहे हैं तुम से

साग़र से मीना से ख़ुम से

दिल लगता है बाहर से जो बोसीदा मकाँ सा

दाख़िल तो कभी हो के ये क़स्र-ए-अदनी देख

पयम्बरों की ज़बानी कही सुनी हम ने

वो कह रहा था कि मेरे भी इंतिख़ाब में

बहुत शगुफ़्ता-ओ-रंगीन गुफ़्तुगू है 'सिराज'

चमन में बात तिरी रंग-ओ-बू से खेलेगी

उस के फ़िक़रे से मैं क्या समझूँ कोई समझा दे

दफ़अ'तन मेरी तरफ़ देख के बोला है

मैं हिकायत-ए-दिल-ए-बे-नवा में इशारत-ए-ग़म-ए-जाविदाँ

मैं वो हर्फ़-ए-आख़िर-ए-मोतबर जो लिखा गया पढ़ा गया

फ़ख़्र ज़ेबा है कि मुद्दत पे कहीं जा के मिरी

अब तलबगार ख़ुदा की ये ख़ुदाई हुई है

इस क़दर नाज़ कीजे कि बुज़ुर्गों ने बहुत

बारहा बज़्म-ए-ख़ुद-आराई सजाई हुई है

सहरा में बसे सब दीवाने शहरों में भी महशर है बरपा

अल्लाह तिरी इस ख़िल्क़त से बाक़ी रहा वीराना तक

ख़्वाब-आलूद निगाहों से ये कहता गुज़रा

मैं हक़ीक़त था जो ता'बीर में रक्खा गया था

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