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अफ़रोज़ आलम

1975 | सउदी अरब

अफ़रोज़ आलम के शेर

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ये खुला जिस्म खुले बाल ये हल्के मल्बूस

तुम नई सुब्ह का आग़ाज़ करोगे शायद

तुम्हारी गुफ़्तुगू से आस की ख़ुश्बू छलकती है

जहाँ तुम हो वहाँ पे ज़िंदगी मालूम होती है

मैं ज़ेहनी तौर पे आवारा होता जाता हूँ

मिरे शुऊ'र मुझे अपनी हद के अंदर खींच

ज़माना तुझ को हरीफ़ कह ले उसे ये हक़ है

मिरी नज़र में तू देवता है यही बहुत है

तारीख़ बताएगी वो क़तरा है कि दरिया

आँसू है अभी वक़्त के क़दमों में पड़ा है

सताती है तुम्हारी याद जब मुझ को शब-ए-हिज्राँ

मुझे ख़ुद अपनी हस्ती अजनबी मालूम होती है

गुम-सुम सा खड़ा है कोई दरवाज़ा-ए-दिल पर

इस शाम का मंज़र तो दिल-आवेज़ बहुत है

अभी सितारों में बाक़ी है ज़िंदगी की रमक़

कुछ और देर ज़रा नर्म गर्म चादर खींच

हर ख़्वाब शिकस्ता है तामीर-ए-नशेमन का

हर सुब्ह के माथे पर बाज़ार की गर्मी है

इसी लिए तो ये दुनिया धुली धुली सी लगे

तिरे फ़िराक़ में रोए हैं ज़ार-ज़ार अभी

मैं उजाले को मोहब्बत का ख़ुदा लिखता हूँ

वो अँधेरे ही से मानूस हुआ जाता है

अदा-ए-ख़ार से गुलशन की बढ़ गई ज़ीनत

अगरचे फूलों के दामन हैं तार तार अभी

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