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अहमद वक़ास महरवी

1990 | गुजर ख़ान, पाकिस्तान

अहमद वक़ास महरवी के शेर

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मुझे पारसाई का दा'वा नहीं है

फ़रिश्ता नहीं मैं निरा आदमी हूँ

बुन रही हैं जाल फिर से मकड़ियाँ

एक आवारा सी मक्खी के लिए

मुस्तक़बिल के ख़ौफ़ से सहमा रहता हूँ

मैं ने बूढे पेड़ की आँखें देखी हैं

क़िस्मत का मिरी हाल बताओगे मुझे क्या

मज़दूर के हाथों पे लकीरें नहीं होतीं

वो जो अना की क़ैद में अब तक है मुतमइन

अब उस के लौटने का गुमाँ किस लिए करें

मैं ने करनी है सितारों से कोई राज़ की बात

अभी कुछ और मिरे क़द को बढ़ाया जाए

हयात-ओ-मौत का ये फ़ल्सफ़ा बजा लेकिन

दरून-ए-ख़ाक मिरा दिल ज़रूर धड़केगा

किसी ने रंज दिया और किसी ने गाली दी

ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ नवाज़ा है दोस्तों ने मुझे

हयात-ओ-मौत का ये फ़ल्सफ़ा बजा लेकिन

दरून-ए-ख़ाक मिरा दिल ज़रूर धड़केगा

रात को तारे गिनता हूँ और रोता हूँ

कहने को तो मैं भी छत पे सोता हूँ

कोई सदी मिरी मुंतज़िर है किसी सदी से गुज़र रहा हूँ

मैं एक मंज़र में जी उठूँगा मैं एक मंज़र में मर रहा हूँ

जिस की फ़ितरत में हो बस एक ख़ुदा की पूजा

ऐसी मिट्टी से कोई बुत बनाया जाए

एक मुकम्मल वाहिद हस्ती मेरी मालिक फिर काहे को

किरची किरची रेज़ा रेज़ा पारा-पारा मैं आवारा

ऐसे में किस का भरोसा कीजिए

जब किसी प्यासे को पानी मार दे

मिरे हर तरफ़ बस ख़ुदा ही ख़ुदा हैं

ख़ुदाओं में सहमा हुआ आदमी हूँ

हिज्र दे के भी बे-क़रारी है

और सुलगाइए इस आतिश को

आईना-ए-हयात में बरसों से वक़ास

ठहरा हुआ है अक्स तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल का

आह करता है तो ज़ंजीर भी रो पड़ती है

तू ने वहशी की अज़िय्यत को कहाँ देखा है

शब-ए-सियाह के माथे पे लिख रहा हूँ मैं

ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी की दास्तान हनूज़

मैं मानता हूँ बुरा बीत बीत जाएगा

मगर वो तीर जो तेरी कमाँ से आएगा

सख़्त मशक़्क़त वाले दिन भी काटे हैं

ख़ून रुलाने वाली रातें देखी हैं

जाए कोई रंज मिटाने को कहीं से

अफ़्लाक से उतरे या निकल आए ज़मीं से

काएनातों का अलाव सर्द होता जा रहा है

ज़िंदगी का सब्ज़ पत्ता ज़र्द होता जा रहा है

जानिब-ए-राह-ए-अदम जो भी सिधारे जाएँ

ऐन मुमकिन है किसी रोज़ पुकारे जाएँ

वक़्त के दाएरे में रहते हुए

थक चुका हूँ हयात सहते हुए

उसी के नूर से रौशन हैं कहकशाएँ भी

वो एक इस्म जो मेरी ज़बाँ से जारी है

जानिब-ए-मक़्तल घसीटा जा रहा है

मुझ पे ये इल्ज़ाम है मैं आदमी हूँ

उस हर्फ़-ए-बा-सफ़ा ने तो सूली चढ़ा दिया

वो एक हर्फ़-ए-हक़ जो मिरे हाफ़िज़े में था

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