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अकबर हैदराबादी के शेर

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चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही

जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला

आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है

है तमन्ना का वही जो ज़िंदगी का हाल है

दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से

कैसी तन्हाई टपकती है दर दीवार से

छोड़ के माल-ओ-दौलत सारी दुनिया में अपनी

ख़ाली हाथ गुज़र जाते हैं कैसे कैसे लोग

लबों पर तबस्सुम तो आँखों में आँसू थी धूप एक पल में तो इक पल में बारिश

हमें याद है बातों बातों में उन का हँसाना रुलाना रुलाना हँसाना

ख़ुद-परस्ती ख़ुदा बन जाए

एहतियातन गुनाह करता हूँ

आँखों को देखने का सलीक़ा जब गया

कितने नक़ाब चेहरा-ए-असरार से उठे

मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला

जो तुम में कुछ ज़ियादा है सफ़र करो सफ़र करो

हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को

सोचने वाला दिल तो बैठा सोचा करता है

बुरे भले में फ़र्क़ है ये जानते हैं सब मगर

है कौन नेक कौन बद नज़र नज़र की बात है

रुत बदली तो ज़मीं के चेहरे का ग़ाज़ा भी बदला

रंग मगर ख़ुद आसमान ने बदले कैसे कैसे

रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार

अब तो उन के घर भी जाना कम कम होता है

मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में

चेहरा इक और भी पस-ए-चेहरा ज़रूर था

पहुँच के जो सर-ए-मंज़िल बिछड़ गया मुझ से

वो हम-सफ़र था मगर हम-नज़र था मेरा

हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है

फ़िक्र-ए-इंसाँ के सजाए हुए बाज़ार तो देख

जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं

मिले हैं रास्ते में कुछ मकाँ जले जले

मिरी शिकस्त भी थी मेरी ज़ात से मंसूब

कि मेरी फ़िक्र का हर फ़ैसला शुऊरी था

मुश्किल ही से कर लेती है दुनिया उसे क़ुबूल

ऐसी हक़ीक़त जिस में फ़साना कम कम होता है

वो पास हो के दूर है तो दूर हो के पास

फ़िराक़ और विसाल हैं अजीब अजीब से

यही सोच कर इक्तिफ़ा चार पर कर गए शैख़-जी

मिलेंगी वहाँ उन को हूर और परियाँ वग़ैरा वग़ैरा

बे-साल-ओ-सिन ज़मानों में फैले हुए हैं हम

बे-रंग-ओ-नस्ल नाम में तू भी है मैं भी हूँ

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