अख़्तर हुसैन रायपुरी की कहानियाँ
जिस्म की पुकार
असलम की आँख देर से खुल चुकी थी लेकिन वो दम साधे हुए बिस्तर पर पड़ा रहा। कमरे के अंदर भी उतना अंधेरा न था जितना कि बाहर। क्यों कि दुनिया कुहासे के काफ़ुरी कफ़न में लिपटी हुई थी ताहम इक्का दुक्का कव्वे की चीख़ पुकार और बर्फ़ पर रेंगती हुई गाड़ियों की मसोसी
मुझे जाने दो
"मुझे जाने दो" उसने कहा और जब तक मैं उसे रोकूँ वो हाथ छुड़ा कर जा चुकी थी। अँधेरे में उसकी आँखों की एक झपक और दहलीज़ पर पाँव के बिछुए की एक झनक सुनाई दी। वो चली गई और मैं कोठड़ी में अकेला रह गया। मैं वहाँ जाना न चाहता था। मैं अक्सर उस मकान के आगे
वो दोनों
अँधेरे में कुछ मुर्दे चुप-चाप बैठे हुए थे। ऊपर मौत की हल्की-हल्की तारीकी नूर की चट्टानों में जम रही थी और नीचे ज़िंदगी मोरियों में पिघल रही थी। उनमें से एक ने कहा, "आओ अब हम उस दुनिया की बातें करें जिसे हम हमेशा के लिए छोड़ आए हैं। देखो, मिट्टी की