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मुझे जाने दो

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    मुझे जाने दो उसने कहा और जब तक मैं उसे रोकूँ वो हाथ छुड़ा कर जा चुकी थी। अँधेरे में उसकी आँखों की एक झपक और दहलीज़ पर पाँव के बिछुए की एक झनक सुनाई दी। वो चली गई और मैं कोठड़ी में अकेला रह गया।

    मैं वहाँ जाना चाहता था। मैं अक्सर उस मकान के आगे से गुज़रा था और शाम के वक़्त कुछ जवान लड़कियों को उसके फाटक के आगे खड़ा पाया था। जाड़े की रातों में नीम-आस्तीन जम्पर पहने हुए ये छोकरियाँ राह चलतों को लुभाने की तदबीर किया करती थीं। कोई भी आँखों वाला ग़ाज़े की सुर्ख़ी में इस्मत के ख़ून की झलक देख सकता था। उनके जिस्म का हर रुआँ थरथरा कर कह रहा था। हमें ले लो। एक रूपए के बदले।

    उनमें से बाज़ सिगरेट का धुआँ निहायत नज़ाकत से किसी रँगीले के मुँह पर फूँक देती थीं और कोई मनचली किसी बदनुमा मारवाड़ी के जूते पर पान की पीक थूक देती थी। जब वो पलट कर देखता तो लड़कियाँ आँख मार कर खिल-खिला पड़ती थीं। उनकी हर अदा ज़बान-ए-हाल से कहती थी। हमें ले लो। एक रूपया के बदले।

    ट्राम पर शरीफ़-ज़ादियों और मोटरों पर अमीर-ज़ादियों के खेप के खेप गुज़रा करते थे। इन सस्ती तवायफ़ों पर नज़र पड़ते ही वो तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार के साथ दूसरी तरफ़ देखने लगती थीं। ये बद-बख़्त, निस्वानियत की कलंग। ख़ुदा इन्हें ग़ारत करे। चंद टकों के लिए, शराब की एक बोतल या सिगरेट की एक डिबिया के लिए ये अपना तन हर एरे-ग़ैरे के सुपुर्द कर देती हैं और हम? फिर वो अपने शौहरों को याद करने लगती थीं जिन्होंने उन्हें ऊँची हवेलियाँ, रेशमी सारियाँ और छ:-छ: बच्चे अता किए थे।

    उस मकान से लग कर काली देवी का एक छोटा सा मंदिर था। ये काली-कलूटी और नंग-धड़ंग देवी अपनी पथराई हुई आँखों से लैल-ओ-नहार का तमाशा देखा करती थी। शाम को जब आरती शुरू होती और कम-सिन लड़कियाँ उसके सामने नाचने लगतीं तो मिट्टी के चराग़ों की धुँधली जोत में उसकी शक्ल ज़्यादा पुर-असरार हो जाती। मालूम होता कि औरत की रूह एक सियाह कफ़न ओढ़े हुए अपनी क़ब्र से उठी है और एक आन में मर्द को फ़ना कर देगी। जो लोग दर्शन के लिए आते, वो हाथ बाँधे हुए ललचाई हुई नज़रों से उन रक़्क़ासाओं को ताका करते थे और जब वो इल्तिफ़ात करतीं तो ये ज़्यादा बेबाकी से उन तवायफ़ों को घूरने लगते। जो पुजारी के डर के मारे सीढ़ी के नीचे सर झुकाए खड़ी रहती थीं।

    उनमें से एक का अंदाज़ सबसे निराला था। उसके दिल में पूजा की अज़मत का एहसास मुतलक़ था। वो सिगरेट पीते हुए निहायत इतमीनान से आरती का तमाशा देखती और वक़्तन-फ़वक़्तन कीर्तन की लय पर पैरों से टेक देने लगती। जब कोई बूढ़ा अपनी फटी हुई आवाज़ से ताल को बेताल कर देता तो वो क़हक़हा मार कर हँस पड़ती और पनवाड़ी को पुकार कर कहती, अरे ज़रा सी सुरती तो बनाना।

    और कीर्तन का नग़मा किसी मजरूह परिंदे की तरह देर तक तड़पता रहता।

    जब मैंने पहली मर्तबा उसे देखा तो मेरा दिल आप ही आप मबहूत हो कर उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हो गया। मैं वहाँ से भागते-भागते भी उसके क़रीब पहुँच गया।

    लेकिन उसने बे-परवाई से मुझे देखा और अपनी एक सहेली से पूछने लगी, अरी इस हराम-ज़ादे से कितने ऐंठे?

    अब मैं हर शाम को उस फ़ुटपाथ पर से गुज़रने लगा। जब वो उस मुक़ाम पर होती तो ज़रा हैरानी से मेरी तरफ़ देखती और फिर कुछ मुस्कुरा कर अपनी हम-चश्मों से बातें करने लगती थी। कभी वो वहाँ नहीं भी होती थी और मैं समझ जाता था कि वो कहाँ है। मेरे दिल पर चोट सी लगती, ख़ून की रवानी तेज़ हो जाती और माथे पर पसीने की बूँदें जातीं। दूर हट कर लैंप के खम्बे का सहारा लिए मैं घंटों खड़ा रहता था। हत्ता कि पैर शल हो जाते थे। मैं यूँ ही टकटकी बाँधे उस फाटक को ताकता रहता था। बहुतेरे शरीफ़ उसके अंदर से निकलते और दाएँ-बाएँ देख कर लपकते हुए भीड़ में गुम हो जाते थे। लंबी-लंबी चोटियों और घनेरी डाढ़ियों वाले बीसियों बदमाश उस चकला-घर से बरामद हो कर भीगी बिल्लियों की तरह पंजे दबाए भागते नज़र आते थे।

    मुझे याद है कि मैंने उससे क्यों कर हम-कलाम होने की जुरअत की थी।

    उस रोज़ मैं अपने सबसे प्यारे दोस्त को क़ब्र में लिटा कर लौटा था। अब दुनिया में कोई अपना था। वो दिक़ में घुल-घुल कर मर गया और मैं उसके इलाज का कोई इंतिज़ाम कर सका। जब वो मर गया तो हमने उसे मिट्टी के तोदों के नीचे दबा दिया। जब वो क़ब्र में सुला दिया गया तो मैंने कलेजा थाम कर आख़िरी मर्तबा उसके चेहरे को देखा। इस पर अब भी वही भोलापन था। गोया इंसान समाज की क़ब्र में चाँदी के ढेलों के नीचे दब गया और उसने मरते-मरते कहा, मेरी पीप तुम्हारे जिस्म को सड़ाएगी, मेरा ख़ून तुम्हारे बदन को तपाएगा, मेरे आँसू तुम्हारे गोश्त को गलाएँगे।

    मैं क़ब्रिस्तान से लौटा तो मेरे जिस्म के अंदर कुछ था। ज़मीर की जगह कोई चीज़ भाँय-भाँय कर रही थी। एक ख़ला जिसमें काहिश के सिवा कुछ था।

    शाम के वक़्त बिला इरादा मैं उसी मकान के आगे मौजूद था। मैंने बना कुछ कहे हाथ पकड़ कर उसे अंदर घसीट लिया।

    उसने मुझे एक रूपया दे कर कहा, इस मंदिर के पीछे की गली में एक कलाल की दुकान है, वहाँ से एक अद्धा ख़रीद लाओ।

    मैंने कभी ऐसा नहीं किया था, लेकिन उस वक़्त जाने क्या हो गया, मैंने तहय्या कर लिया कि हर वो काम अच्छा है जिसे दुनिया बुरा कहती है। फिर मैं उस कलाल की दुकान में घुस गया।

    मिट्टी के बड़े-बड़े मटके... जिन पर झाग के बादल सिमट आए थे। जैसे भैंस के थन से दूध टपक रहा हो। उनमें मक्खियाँ और मकोड़े तैरते हुए अंदर मतवाले मिल कर गा रहे थे।

    एकशा नंबर वन का आआआ... बहा आआआ... दे नाला...

    मैं जल्दी से एक अद्धा ख़रीदा और दो अन्नी की चाट। चटपटी मसाले दार।

    उसने मुँह लगा कर देखते-देखते आधी बोतल ख़त्म कर दी। फिर चुप-चाप एक सिगरेट सुलगाया।

    और मेरी गोद में अपने पाँव फैला कर टूटी हुई आराम कुरसी पर दराज़ हो गई।

    यक-ब-यक वो ज़ोर से हँसी और मुझे ग़ौर से देख कर पूछा, तुम यहाँ क्यों आए हो?

    हवा बंद थी। खिड़की से आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा नज़र रहा था जिसमें दो तीन सितारे चमेली के फूलों की तरह खिले हुए थे।

    मैंने कोई जवाब नहीं दिया था। इस सवाल का जवाब क्या हो सकता था।

    बोलते नहीं। मैं पूछ रही हूँ कि तुम यहाँ किस ग़रज़ से आए हो। मुझे उस मर्द से नफ़रत होती है जो औरत के पास बैठ कर अपना मुद्दा ज़बान से नहीं बल्कि निगाह से ज़ाहिर किया करता है और उस घड़ी का मुंतज़िर रहता है, जब औरत ख़ुद उससे पूछेगी, तुम क्या चाहते हो?

    उसने बोतल की बची हुई शराब अपने गले के नीचे उतार ली और सिगरेट का एक गहरा कश ले कर बाहर देखने लगी। मैं बदस्तूर चुप था। ख़ुद मुझे भी नहीं मा'लूम था कि मैं क्यों आया हूँ और क्या चाहता हूँ।

    फिर वो उठ कर कोठड़ी में टहलने लगी। टहलते-टहलते वो आईने के सामने खड़ी हो गई और उसमें अपनी सूरत देखने लगी। जब वो दोबारा हँसी तो मुझे ऐसा लगा कि कोई मुर्दा हँस रहा है।

    ये मेरी ही सूरत है। अगर मैं काजल ग़ाज़ा और लाखे को धो डालूँ तो क्या रह जाए। धुँधली आँखें, पिचके हुए गाल, सूखे हुए होंट। तीन साल के अंदर क्या से क्या हो गया। मेरे जिस्म को घुन लग चुका है मैं अंदर से खोखली हो गई हूँ। मुझे ऐसी-ऐसी बीमारियाँ लग गई हैं जिनके तसव्वुर से तुम्हें वहशत होगी और तुम यहाँ से भाग जाओगे!

    देर तक वो कुछ सोचती रही। उसका मुँह ग़ुस्से से तमतमा रहा था। मुझ पर आँखें गाड़ कर वो कहने लगी, और ये बीमारियाँ मुझे कहाँ से लगीं? ये तुम जैसे चाहने वालों का ही अतीया है।

    मर्द-सूज़ाक और आतशक के जरासीम का बाप!

    तुम अभी इस कूचे से ना-वाक़िफ़ हो। नहीं जानते कि औरत क्या है। अगर तुम्हें अपने दूसरे भाइयों की तरह मालूम होगा कि वो मिट्टी का एक खिलौना है और बस। तो तुम आते ही उसे तोड़ देते।

    यूँ हैरत और हैबत से मुझे ताका करते। गर तुम उन लोगों से अच्छे हो जो वहशी दरिंदों की तरह देखते ही हमारे सीनों पर आते हैं। हमें कुत्तों की तरह भंभोड़ते हैं और जब हड्डियों में गूदा नहीं रहता तो हमारे पल्लू में दो-चार टिकलियाँ बाँध कर चले जाते हैं।

    फिर घर वाली आती है। हमारी गिरह से एक-एक छदाम निकाल कर ले जाती है और उसके बदले हमें खाने के लिए रोटियाँ और सिंगार के लिए काजल की सलाई दे जाती है।

    दिन के उजाले में जब तुम लोग इधर से आते-जाते हो तो हिक़ारत से मुँह फेर कर अपने साथियों से कहते हो यहाँ छिनाला है। इन टिकेती तवायफ़ों को अस्मत या इज़्ज़त का ज़रा पास नहीं। इन्हें शह्र से निकाल देना चाहिए।

    मगर रात के अँधेरे में तुम कशाँ-कशाँ आते हो और इन ख़राबों को आबाद करते हो। तुम अपना मुँह काला करके अपनी हराम कमाई के चंद दिरम हमें देते हो और फिर इस तजस्सुस में अपनी हरम सरा को भागते हो कि बीवी तो ख़ैरियत से है।

    वो हाँपने और खाँसने लगी। उसका साँस फूल गया और चारपाई पर गर पड़ी। उसने दर-ओ-दीवार को देखा और आप ही आप कहने लगी, ज़ियादा दिन नहीं। ये मसाइब बहुत जल्द ख़त्म हो जाएँगे। अब सब कुछ ख़्वाब मालूम होता है।

    जब मैं मर जाऊँ और मेरी लाश लावारिसों के क़ब्रिस्तान में फेंक दी जाए तो तुम अली गिरी के मौलाना नूरुल इस्लाम से मिलना। उस वक़्त उनके पास जाना जब वो मिंबर पर बैठे जुमे का ख़ुत्बा सुना रहे हों और तुम्हें शराफ़त की क़सम कि जब वो अख़लाक़ की तफ़सीर बयान करने लगें तो अपनी सफ़ से निकल कर कहना। मौलाना! मैं एक परदेसी हूँ और आप को ये पैग़ाम सुनाने कलकत्ता से आया हूँ कि बद-अख़्लाक़ी इस दुनिया से चल बसी। अब आप नाहक़ बिसूरीए।

    और जब सब बढे अपनी ऐनकें खिसका कर तुम्हें घूरें और पूछें कि ये क्या बकता है, तो तुम कहना। मैं आप की बेटी के ज़नाज़े का तमाशा देख कर रहा हूँ। वो जिसे एक हरामी बच्चा पैदा करने के जुर्म में आप ने घर से निकाल दिया था। उसे एक मर्द-ए-मोमिन ने कुछ दिनों के लिए अपने घर डाल लिया और इसी तरह हाथों-हाथ वो कलकत्ता पहुँच कर तवायफ़ का पेशा करने लगी। आप के हम-जिन्सों ने तोहफ़े में उसे घिनौनी बीमारियाँ दीं और जब वो मर गई तो एक हाफ़िज़ ने उसकी क़ब्र पर फ़ातिहा-ख़्वानी की। जब तुम ये कह चुकोगे तो लोग तुम्हें बहुत पीटेंगे लेकिन अपनी मोहब्बत के सदक़े में इतनी तकलीफ़ उठा लेना।

    मेरा दिल बैठा जा रहा था। मैं चाहता था कि वहाँ से भाग जाऊँ मगर पैरों में जैसे ज़ंजीर पड़ गई थी।

    वो फिर खाँसने लगी। जब उसका जी कुछ सँभला तो मैंने देखा कि वो चुपके-चुपके रो रही है। तुम लोग जानवरों पर रहम खाते हो। उन पर कोई तशद्दुद करता है तो सज़ाएँ देते हो। मैंने सेठों को देखा है कि च्यूँटियों को शकर और सांडों को पूरियाँ खिलाते हैं। मगर औरत! आह औरत पर इतना ज़ुल्म क्यों करते हो?

    मगर औरतें बीवियाँ बन कर तवायफ़ों से मर्दों की ब-निस्बत ज़्यादा नफ़रत करती हैं। उन्हें मालूम नहीं कि हमारा वुजूद उनके हक़ में कितनी बड़ी नेमत है। हम उन्हें ज़िना-बिल-जब्र, अग़वा और अलानिया इस्मत-दरी से बचाती हैं।

    और ख़ुदा! वो हमारी क्यों नहीं सुनता। अगर उसकी जन्नत में हूरों के लिए जगह है तो दुनिया में एक कोना हमें क्यों नहीं मिल सकता?

    अब हवा चल रही थी और ताड़ के पत्ते गुमनाम आवाज़ में कराह रहे थे। सड़क पर ट्रामों और मोटरों का शोर बहुत कम हो गया था। अलबत्ता इक्के-दुक्के रिक्शे की घंटी बज उठती थी। बादलों ने आसमान के इस टुकड़े को घेर लिया था और उनमें कभी-कभी बिजली चमक जाती थी।

    वो फिर बोलने लगी, मैंने सिर्फ़ एक मर्तबा मोहब्बत की है और अब भी इस फ़रेब में मुब्तिला हूँ कि वो सच्ची मोहब्बत थी। ये फ़रेब कभी टूटेगा। क्योंकि क़ब्ल इसके कि मैं उसका इम्तिहान लूँ वो मर चुका था।

    वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर किस इल्तिजा से मुझे देखता था। वही तसव्वुर मुझे दुनिया में सबसे ज़्यादा अज़ीज़ है। मैंने अपना सरमाया-ए-हयात उसे सौंप दिया और इससे पहले कि वो इस अमानत को लौटाए वो प्लेग में मर गया।

    उसने मुझे जो बच्चा दिया वो हरामी था। काश हमारी मोहब्बत को अख़लाक़ की मुहर मिल जाती और मेरा बच्चा मिल जाता।

    इन भूली हुई बातों की याद से उसका दिल भर आया और वो फूट-फूट कर रोने लगी। मेरी समझ में नहीं आया कि उसे किस तरह दिलासा दूँ जिस माँ के आगे उसके बच्चे की लाश पड़ी हुई हो और जिस औरत के आगे उसके महबूब का जनाज़ा, उसे तसल्ली देने का उस्लूब कोई ज़बान पैदा नहीं कर सकती।

    जैसे वो अदालत के आगे बयान दे रही हो। मेरी सौतेली माँ ने अंधेरी रात में उस बच्चे की लाश आँगन में गाड़ दी। अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे बिजली की रौशनी में मैंने वो नज़ारा देखा और फिर बेहोश हो गई।

    दो-तीन रोज़ बाद मेरे सौतेले मामूँ ने मुझे गाड़ी में बिठा कर इलाहाबाद का टिकट हाथ में थमा दिया। यहीं से मेरी मुसीबत का आग़ाज़ होता है।

    इलाहाबाद-मेरे निसबती ख़ालू का मकान।

    मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इस्मत-दरी, बदनामी का डर, कलकत्ता। ये चकला घर।

    ज़ेर-ए-लब वो ये टूटे-फूटे जुमले दोहराती रही और चंद लम्हों के लिए उसकी आँख लग गई।

    मैं दबे पाँव उठा और निकल भागने की निय्यत से जूते पहनने लगा। इतने में वो चौंक कर उठ बैठी, क्या तुम जा रहे हो? उसने उदासी से पूछा। अब उसकी आवाज़ नर्म-ओ-नहीफ़ हो गई थी।

    मैं खड़ा का खड़ा रह गया। अब भी कुछ कह सका।

    अच्छा तो जाओ ख़ुदा हाफ़िज़। अब आना। में तुमसे इंतिक़ाम नहीं लेना चाहती और कोई होता तो मैं ब-सद-शुक्र सूज़ाक और आतशक के चंद जरासीम नज़्र करती। वो किसी और को देता और ये उसके बच्चों को विरसे में मिलते। ग़रज़ सारी इंसानियत इन अमराज़ में मुब्तिला हो जाती।

    तब शायद समाज के ठीके-दारों को होश आता कि इस बला की जड़ कहाँ है।

    मगर कभी-कभी कर पूछ लेना कि मेरे मरने में कितनी देर है। कोई कानों में कह रहा है कि ज़्यादा देर नहीं।

    कोई भरी जवानी में मरता है तो लोग अफ़सोस करते हैं कि कैसा ना-मुराद चला। लेकिन मुझे देखो कि ज़िंदगी से मौत के सिवा कुछ नहीं माँगती। तुम नहीं जानते कि हम आप अपनी नज़र में कितनी ज़लील हैं। हमारा हर लम्हा दूसरों की ख़ुशनूदी में बसर होता है। हम ऐसी लौंडियाँ हैं जिनके आक़ा हर रोज़ बदलते हैं, क्यों। किस ख़्याल में गुम हो गए। जाओ ख़ुदा के लिए चले जाओ।

    लेकिन मैं जा सका। मुझे उससे कुछ नहीं लेना था। फिर भी मैं गिरफ़्तार-ए-नज़र परिंदे की तरह अपनी जगह से टल सका।

    मैं नहीं जाऊँगा। ये कह कर मैंने अपना सिर उसके आग़ोश में रख दिया। वो एक बे-जान लाश की तरह यूँ ही पड़ी रही। उसके दिल की धड़कन को मैं साफ़ सुन सकता था। उसकी रूह का नौहा मेरे कानों में गूँज रहा था।

    तो फिर मुझे जाने दो। उसने कहा और वो चली गई।

    स्रोत:

    Mohabbat Aur Nafrat (Pg. 156)

    • लेखक: अख़्तर हुसैन रायपुरी
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली

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