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अंजुम फ़ारूक़ के शेर

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बस इतना सा है ख़ुलासा मिरी कहानी का

कि इब्तिदा तिरी आँखें हैं इंतिहा मिरा 'इश्क़

अलविदा'ई शाम पहुँची यहाँ

चुप है तू मेरा ख़ुदा होते हुए

कहीं भी बात हो मेरा हवाला ही जाता है

मोहब्बत ने बचाया है मुझे गुमनाम होने से

जहाँ तक हो सके ख़ुद को बचा बदनाम होने से

मोहब्बत ख़त्म होती है मोहब्बत 'आम होने से

गुलाब-रुत की तरह 'अर्सा-ए-जमाल में

हवा-ए-ग़म से निकल मौसम-ए-विसाल में

बालकोनी पे खड़ी लड़कियाँ कब सोचती हैं

ये जगह ठीक नहीं आइना-दारी के लिए

तू बता कैसे गुज़ारी शब-ए-हिज्राँ तू ने

मैं तो जब रो सका मैं ने ग़ज़ल-ख़्वानी की

वो तो 'अंजुम' ख़्वाब था बस ख़्वाब था

कब तिरा था वो तिरा होते हुए

ऐसे मिलें कि हम को बिछड़ने का डर हो

वो 'इश्क़ कोई 'इश्क़ है जो 'उम्र भर हो

अभी तो ख़ुश हूँ तिरे 'इश्क़ में बहुत ख़ुश हूँ

ये एक दिन मिरा जीना 'अज़ाब कर देगा

अब तिरा रस्ता जुदा मेरा जुदा

देख क़िस्मत का लिखा होते हुए

इस लिए साँप मुझे ढूँढ़ रहे हैं प्यारे

मैं महकता हूँ तिरे हिज्र में संदल हो कर

मिरे पिंजरे को तोड़ते क्यों हो

जब मैं आज़ाद हो नहीं सकता

साहबो मैं ने तराशे नहीं पत्थर के सनम

मेरे हाथों से बना और बना एक ही शख़्स

इन की चहकार से यादों में ख़लल पड़ता है

घर की दीवार से चिड़ियों को उड़ा दो 'अंजुम'

'इश्क़ वक़्त-ए-दिगर पे क्यों छोड़ें

ये तिरे बा'द हो नहीं सकता

बहुत अच्छा बहुत अच्छा बहुत अच्छा है तू लेकिन

तुझे कोई कहे अच्छा मुझे अच्छा नहीं लगता

अब तो हवा-ए-शहर भी बिल्कुल तिरी तरह

ये चाहती है कोई दिया बाम पर हो

मैं अगर हर्फ़-ए-ग़लत था तो लिखा ही क्यों था

लिख दिया है तो ख़ुदारा मिटाया जाए

तू ज़िंदगी का मिरी इंतिसाब है मिरे दोस्त

सो तेरे नाम ही पहली किताब है मिरे दोस्त

मैं चाहता हूँ कि तुझ सा दिखाई दूँ मैं भी

जमाल-ए-यार कभी मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल में

इस लिए कश्कोल में पड़ती है भीक

हम ने है लाठी से लटकाया हुआ

हाकिम-ए-शहर की ख़्वाहिश कि हुकूमत की जाए

वर्ना हालात तो ऐसे हैं कि हिजरत की जाए

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