अर्शी भोपाली के शेर
मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
नज़रें जवान हों तो ख़िज़ाँ भी बहार है
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निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
जो हम फ़रेब न खाते तो और क्या करते
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अजीब चीज़ है ये शौक़-ए-आरज़ू-मंदी
हयात मिट के रही दिल ख़राब हो के रहा
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बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
ये दर्द बढ़ के रहा इज़्तिराब हो के रहा
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हम तो आवारा-ए-सहरा हैं हमें क्या मतलब
उन की महफ़िल में जुनूँ की कोई तौक़ीर सही
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हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली
तिरी नवाज़िश-ए-बेजा का क्या गिला करते
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टैग : शिकवा
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