अशफ़ाक़ हुसैन
ग़ज़ल 42
नज़्म 8
अशआर 16
जो ख़्वाब की दहलीज़ तलक भी नहीं आया
आज उस से मुलाक़ात की सूरत निकल आई
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तुम्हें मनाने का मुझ को ख़याल क्या आए
कि अपने आप से रूठा हुआ तो मैं भी हूँ
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तलाश अपनी ख़ुद अपने वजूद को खो कर
ये कार-ए-इश्क़ है इस में लगा तो मैं भी हूँ
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दिन भर के झमेलों से बचा लाया था ख़ुद को
शाम आते ही 'अश्फ़ाक़' मैं टूटा हुआ क्यूँ हूँ
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दिल की जागीर में मेरा भी कोई हिस्सा रख
मैं भी तेरा हूँ मुझे भी तो कहीं रहना है
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