अशफ़ाक़ नासिर के शेर
शाम ढलने से फ़क़त शाम नहीं ढलती है
उम्र ढल जाती है जल्दी पलट आना मिरे दोस्त
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अपनी क़िस्मत में सभी कुछ था मगर फूल न थे
तुम अगर फूल न होते तो हमारे होते
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शाम होती है तो लगता है कोई रूठ गया
और शब उस को मनाने में गुज़र जाती है
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हिज्र इंसाँ के ख़द-ओ-ख़ाल बदल देता है
कभी फ़ुर्सत में मुझे देखने आना मिरे दोस्त
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वो फूल हो सितारा हो शबनम हो झील हो
तेरी किताब-ए-हुस्न के सब इक़्तिबास थे
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हम फ़क़त तेरी गुफ़्तुगू में नहीं
हर सुख़न हर ज़बान में हम हैं
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वो जिस में लौट के आती थी एक शहज़ादी
अभी तलक नहीं भूली वो दास्ताँ मुझ को
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वो शख़्स जिस की ख़ुशी का बाइस थीं मेरी बातें
उसे अब उन पर मलाल करने भी आ गए हैं
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हम आइने में तिरा अक्स देखने के लिए
कई चराग़ नदी में बहाने लगते हैं
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ऐ जुनूँ उस की कहानी भी सुनाऊँगा तुझे
ये जो पैवंद मिरे चाक में देखा गया है
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