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अज़ीम हैदर सय्यद

1971 | कराची, पाकिस्तान

अज़ीम हैदर सय्यद के शेर

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देने वाले तू मुझे नींद दे ख़्वाब तो दे

मुझ को महताब से आगे भी कहीं जाना है

शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे

मैं तेरे साथ साथ रहा घर नहीं गया

लिबास देख के इतना हमें ग़रीब जान

हमारा ग़म तिरी इम्लाक से ज़ियादा है

इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक

वो मेरे साथ साथ था उरूज से ज़वाल तक

चमन उजाड़ने वालो तुम्हें ख़ुदा समझे

तुम्हें आई हया फूल तो हमारे गए

बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र

हम को ख़रीद ले वो ख़रीदार चाहिए

तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए

मैं भी बिछड़ के जी ही लिया मर नहीं गया

धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी

वक़्त की गर्द ने उन्हें ख़्वाब-ओ-ख़याल कर दिया

ख़याल आता है अक्सर उतार फेंकूँ बदन

कि ये लिबास मिरी ख़ाक से ज़ियादा है

सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ हो

धूप का रंग भी दीवार में सकता है

किस लिए ख़ुद को समझता है वो पत्थर की लकीर

उस का इंकार भी इक़रार में सकता है

सड़क के पार चला जा रहा है बचता हुआ

किसी का हाथ कोई मेहरबान थामे हुए

उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब

जो साहिलों को छोड़ के दरिया में गए

आहन संग को ज़हराब-ए-फ़ना चाट गया

पहले दीवार शिकस्ता हुई फिर बाब गिरा

सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो

जो लोग मर गए हैं उन्हें ख़ाक से उठा

क्या ढूँडने निकली है किसी क़ैस को पागल

इस दर्जा जो ये बाद-ए-बयाबानी हुई है

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