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अज़ीम मुर्तज़ा

1923 - 1983

अज़ीम मुर्तज़ा

ग़ज़ल 13

अशआर 17

जो हो सके तो चले आओ आज मेरी तरफ़

मिले भी देर हुई और जी उदास भी है

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दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद भी इक दौलत है

अहल-ए-ग़म भी तिरे शर्मिंदा-ए-एहसाँ निकले

आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई का समाँ

तेरी आवाज़ की लर्ज़िश तिरे लहजे की थकन

कुछ नक़्श तिरी याद के बाक़ी हैं अभी तक

दिल बे-सर-ओ-सामाँ सही वीराँ तो नहीं है

ख़ुलूस-ए-नियत-ए-रहबर पे मुनहसिर है 'अज़ीम'

मक़ाम-ए-इश्क़ बहुत दूर भी है पास भी है

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