बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल 9
अशआर 1
जो बात नसरी है नज़रियाती है जदलियाती है वो मुकम्मल कभी न होगी
मगर जो मुज्मल है और मौज़ूँ है और हतमी और आख़िरी है वो शाइ'री है
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere