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बकुल देव

1980 | जयपुर, भारत

हिन्दुस्तान की नई पीढ़ी के शायर

हिन्दुस्तान की नई पीढ़ी के शायर

बकुल देव के शेर

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हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में

अभी इस लौ में हल्का सा धुआँ है

शाम उतरी है फिर अहाते में

जिस्म पर रौशनी के घाव लिए

वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से

जिसे देखो कटे को काटता है

समुंदर है कोई आँखों में शायद

किनारों पर चमकते हैं गुहर से

तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से

भले लगते हैं कुछ नुक़सान लेकिन

मुस्कुराने का फ़न तो बअ'द का है

पहले साअ'त का इंतिख़ाब करो

सम्त दुनिया के हम गए ही नहीं

उस इलाक़े से दुश्मनी सी रही

मिले अब के तो रोए टूट कर हम

गुनाह अपनी सज़ा के रू-ब-रू था

मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ

ख़ुदी जो दरमियाँ थी दरमियाँ है

ख़्वाब नद्दी सा गुज़र जाएगा

दश्त आँखों में ठहर जाना है

एक नश्शा है ख़ुद-नुमाई भी

जो ये उतरे तो फिर तुझे देखूँ

उतर जाता तो रुस्वाई बहुत होती

कि सर का बोझ भी दस्तार जैसा था

हम जो टूटे हैं बता हार भला किस की हुई

ज़िंदगी तेरी उठाई हुई सौगंद थे हम

कशिश तुझ सी थी तेरे ग़मों में

लब-ओ-लहजा मगर हाँ हू-ब-हू था

अब के ताबीर मसअला रहे

ये जो दुनिया है इस को ख़्वाब करो

हमें इस तरह ही होना था आबाद

हमारे साथ वीराने लगे हैं

ज़ेर-ए-लब रख छुपा के नाम उस का

लफ़्ज़ होते हैं कुछ बयाँ से ख़राब

आइने में है फिर वही सूरत

यूँ ही होती है तर्जुमानी क्या

और कुछ देर ग़म नज़र में रख

क्या ख़बर मिल ही जाए थाह कहीं

बअ'द मुद्दत ये जिला किस के हुनर ने बख़्शी

बअ'द मुद्दत मिरे आईने में चेहरे आए

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