हुसना सरवर के शेर
जागी किरनें तो सब्ज़े पर झिलमिल आँसू बोल उठे
रात को तन्हाई में शबनम चुपके चुपके रोई है
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दिल के आँगन में अंधेरा है बहुत
चाँद बन कर उतर आओ तो सही
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शहर-दर-शहर भटकते ही रहे उम्र तमाम
क्या तिरे हाथ की रेखाओं में आराम नहीं
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बैठे बैठे यूँ ही तन्हाई के सहराओं में
दर्द की रेत पे लिखते हैं तिरा नाम अक्सर
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झील में चाँदनी का अक्स-ए-जमील
या तिरी याद दिल से गुज़री है
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मैं अपनी ज़ात में गुम बे-ख़ुदी में रहती हूँ
सबा की तरह कोई छेड़े गुदगुदाए मुझे
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तिरी निगाह में ये जो किरन सी काँपती है
दयार-ए-दिल में ये कैसा चराग़ जलता है
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