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इदरीस आज़ाद

इदरीस आज़ाद के शेर

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ईद का चाँद तुम ने देख लिया

चाँद की ईद हो गई होगी

मैं तो इतना भी समझने से रहा हों क़ासिर

राह तकने के सिवा आँख का मक़्सद क्या है

इतने ज़ालिम बनो कुछ तो मुरव्वत सीखो

तुम पे मरते हैं तो क्या मार ही डालोगे हमें

दिल का दरवाज़ा खुला था कोई टिकता कैसे

जो भी आता था वो जाने के लिए आता था

मैं अपने आप से रहता हूँ दूर ईद के दिन

इक अजनबी सा तकल्लुफ़ नए लिबास में है

तिरी तारीफ़ करने लग गया हूँ

मोहब्बत ने दियानत छीन ली है

मैं ने जितने भी लोग देखे हैं

सब के सीनों में रोग देखे हैं

जब छोड़ गया था तो कहाँ छोड़ गया था

लौटा है तो लगता है कि अब छोड़ गया है

वो शहर भर को फ़साने सुनाता फिरता है

हमारे सामने सच्चा बने तो बात बने

कौन काफ़िर है जो खेलेगा दियानत से यहाँ

जब मिरी जीत है वाबस्ता तिरी हार के साथ

तुम ने तारों को रहनुमा जाना

हम ने तारों की रहनुमाई की

नहीं नहीं मैं अकेला तो दिल-गिरफ़्ता था

शजर भी बैठा था मुझ से कमर लगाए हुए

मैं ख़ुद उदास खड़ा था कटे दरख़्त के पास

परिंदा उड़ के मिरे हाथ पर उतर आया

मैं जिस में दफ़्न हूँ इक चलती फिरती क़ब्र है ये

जनम नहीं था वो दर-अस्ल मर गया था मैं

जहाँ तस्वीर बनवाने की ख़ातिर लोग आते थे

वहाँ पस-मंज़र-ए-तस्वीर जो दीवार थी मैं था

टूटी निशस्त-ए-दिल तो मोहब्बत की आबरू

वापस उसी मक़ाम पे लाई जा सकी

बजता रहता है मुसलसल किसी बरबत की तरह

किस की दस्तक पे लगा है मिरा दरवाज़ा-ए-दिल

वो शौक़-ए-रब्त-ए-नौ में खड़ी झूलती रही

मैं शाख़-ए-ए'तिबार से फल की तरह गिरा

तिरी रू-नुमाई की रात भी मैं जहाँ खड़ा था खड़ा रहा

कि हुजूम-ए-शहर को चीर कर मुझे रास्ता नहीं चाहिए

उसे एहसास होना चाहिए था

कि बच्चे को खिलौना चाहिए था

खींच लाती है समुंदर से जज़ीरे सर-ए-आब

जब मिरी आँख को मंज़र की तमन्ना हो जाए

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