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कबीर अजमल

1967 - 2020 | बनारस, भारत

कबीर अजमल के शेर

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उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं

हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो ख़ुद को पाऊँ मैं

कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे

उस से रिश्ता भी रहा वहम गुमाँ से आगे

ज़मीर ज़ेहन में इक सर्द जंग जारी है

किसे शिकस्त दूँ और किस पे फ़त्ह पाऊँ मैं

मैं बुझ गया तो कौन उजालेगा तेरा रूप

ज़िंदा हूँ इस ख़याल में मरता हुआ सा मैं

'अजमल' सफ़र में साथ रहीं यूँ सऊबतें

जैसे कि हर सज़ा का सज़ा-वार मैं ही था

लहू रिश्तों का अब जमने लगा है

कोई सैलाब मेरे घर भी आए

कोई सदा कोई आवाज़ा-ए-जरस ही सही

कोई बहाना कि हम जाँ निसार करते रहें

किस से मैं उन का ठिकाना पूछता

सामने ख़ाली मकाँ था और मैं

ज़िंदा कोई कहाँ था कि सदक़ा उतारता

आख़िर तमाम शहर ही ख़ाशाक हो गया

ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या

मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे

कहते हैं कि उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत

और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है

उसी के होंटों के फूल बाब-ए-क़ुबूल चूमें

सो हम उठा लाएँ अब के हर्फ़-ए-दुआ उसी का

यूँ ख़ुश हो शहर-ए-निगाराँ के दर बाम

ये वादी-ए-सफ़्फ़ाक भी रहने की नहीं है

वो मेरे ख़्वाब चुरा कर भी ख़ुश नहीं 'अजमल'

वो एक ख़्वाब लहू में जो फैल जाना था

क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्माल है 'अजमल'

इस घर पे तो आसेब का साया भी नहीं है

बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का

मैं मुन्हरिफ़ तो नहीं था तिरे उसूलों का

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