ख़ालिद मोईन
ग़ज़ल 11
नज़्म 7
अशआर 13
मुन्कशिफ़! आज तलक हो न सका
मैं ख़ला हूँ कि ख़ला है मुझ में
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मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
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लकीरें खींचते रहने से बन गई तस्वीर
कोई भी काम हो, बे-कार थोड़ी होता है
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सदाएँ डूब जाती हैं हवा के शोर में और मैं
गली-कूचों में तन्हा चीख़ता रहता हूँ बारिश में
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हाथ छुड़ा कर जाने वाले
मैं तुझ को अपना समझा था
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