ख़ालिद शरीफ़
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 10
आज कुछ रंग दिगर है मिरे घर का 'ख़ालिद'
सोचता हूँ ये तिरी याद है या ख़ुद तू है
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आसमाँ झाँक रहा है 'ख़ालिद'
चाँद कमरे में मिरे उतरा है
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ज़ख़्म रिसने लगा है फिर शायद
याद उस ने किया है फिर शायद
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वो तो गया अब अपनी अना को समेट ले
ऐ ग़म-गुसार दस्त-ए-दुआ को समेट ले
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