लियाक़त जाफ़री के शेर
इश्क़ तू ने बड़ा नुक़सान किया है मेरा
मैं तो उस शख़्स से नफ़रत भी नहीं कर सकता
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मिरे क़बीले में ता'लीम का रिवाज न था
मिरे बुज़ुर्ग मगर तख़्तियाँ बनाते थे
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जहाँ जो था वहीं रहना था उस को
मगर ये लोग हिजरत कर रहे हैं
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टैग : सोशल डिस्टेन्सिंग शायरी
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मैं दौड़ दौड़ के ख़ुद को पकड़ के लाता हूँ
तुम्हारे इश्क़ ने बच्चा बना दिया है मुझे
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मैं कुछ दिन से अचानक फिर अकेला पड़ गया हूँ
नए मौसम में इक वहशत पुरानी काटती है
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हम भी जी भर के तुझे कोसते फिरते लेकिन
हम तिरा लहजा-ए-बे-बाक कहाँ से लाएँ
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वजूद अपना है और आप तय करेंगे हम
कहाँ पे होना है हम को कहाँ नहीं होना
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लफ़्ज़ को इल्हाम मअ'नी को शरर समझा था मैं
दर-हक़ीक़त ऐब था जिस को हुनर समझा था मैं
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हालाँकि पहले साए से रहती थी कश्मकश
अब अपने बोझ से ही दबा जा रहा हूँ मैं
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मैं आख़िरी था जिसे सरफ़राज़ होना था
मिरे हुनर में भी कोताहियाँ निकल आईं
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उसी के नूर से ये रौशनी बची हुई थी
मिरे नसीब में जो तीरगी बची हुई थी
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उस आइने में था सरसब्ज़ बाग़ का मंज़र
छुआ जो मैं ने तो दो तितलियाँ निकल आईं
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एक आसेब तआक़ुब में लगा रहता है
मैं जो रुकता हूँ तो फिर उस की सदा चलती है
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