महरम लखनवी के शेर
हयात-ए-ख़िज़्र दे यारब मिरे तहम्मुल को
शब-ए-फ़िराक़ अगर मुख़्तसर नहीं न सही
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न सिर्फ़ दैर-ओ-हरम बल्कि चढ़ के दार पे भी
तिरे पुकारने वाले तुझे पुकार गए
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जहाँ पहुँच के तुम्हें भूलना मुनासिब था
रह-ए-हयात में ऐसे भी कुछ मक़ाम आए
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शायद इसी का नाम जुमूद-ए-हयात है
अहल-ए-हुनर को फ़ुर्सत-ए-कस्ब-ए-हुनर नहीं
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