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मनमोहन तल्ख़

1931 - 2001 | दिल्ली, भारत

प्रमुख आधुनिक शायर/यास यगाना चंगेज़ी के शार्गिद

प्रमुख आधुनिक शायर/यास यगाना चंगेज़ी के शार्गिद

मनमोहन तल्ख़ के शेर

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मैं ख़ुद में गूँजता हूँ बन के तेरा सन्नाटा

मुझे देख मिरी तरह बे-ज़बाँ बन कर

किसी के साथ होने के दुख भी झेले हैं

किसी के साथ मगर और भी अकेले हैं

शिकायत और तो कुछ भी नहीं इन आँखों से

ज़रा सी बात पे पानी बहुत बरसता है

दुनिया मेरी ज़िंदगी के दिन कम करती जाती है क्यूँ

ख़ून पसीना एक किया है ये मेरी मज़दूरी है

हम कई रोज़ से बे-वजह बहुत ख़ुश हैं चलो

ज़िंदगी की ये अदाएँ भी तो देखी जाएँ

कोई जिस बात से ख़ुश है तो ख़फ़ा दूसरा है

कुछ भी कहने में किसी से यही दुश्वारी है

बार-हा ख़ुद पे मैं हैरान बहुत होता हूँ

कोई है मुझ में जो बिल्कुल ही जुदा है मुझ से

ये 'तल्ख़' किया क्या है ख़ुद से भी गए तुम तो

मरना ही किसी पर था तुम ख़ुद पे मरे होते

हर शक्ल रफ़्ता रफ़्ता अंजान हो गई है

मुश्किल थी जो भी जिस की आसान हो गई है

ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है

और आँखें मूँद कर हर बात दोहराने को कहता है

सब के सो जाने पे अफ़्लाक से क्या कहता है

रात को एक परिंदे की सदा सुनता हूँ

ये अब घरों में पानी धूप है जगह

ज़मीं ने 'तल्ख़' ये शहरों को बद-दुआ दी है

साबित ये मैं करूँगा कि हूँ या नहीं हूँ मैं

वहम यक़ीं का कोई दो-राहा नहीं हूँ मैं

अज़-रोज़-ए-अज़ल है कि नहीं है का है महशर

और इस का जवाब आज भी हाँ भी है नहीं भी

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