मैराज नक़वी के शेर
कुछ आस्तीनों की मजबूरियाँ भी होती हैं
ख़ुशी से अपनी भला साँप कौन पालता है
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इस क़दर ए'तिबार ठीक नहीं
तुम मुझे जानती ही कितना हो
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मेरी ख़ातिर वो किसी और को छोड़ आया है
अब किसी और की ख़ातिर वो मुझे छोड़ेगा
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ये 'इश्क़ जज़्बा-ए-रूहानियत है मानता हूँ
मगर तू जिस्म की मजबूरियाँ भी समझा कर
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अपनी रुस्वाइयों से कैसे बचें
लोग अख़बार भी तो पढ़ते हैं
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मेरी नाकामियाँ हैं मेरी मगर
मेरी शोहरत में सब का हिस्सा है
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तुझ को हक़ है तू दिल दुखा मेरा
मैं तुझे प्यार भी तो करता हूँ
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नींद में भी है शर्म चेहरे पर
ख़्वाब में मुझ से मिल रही हो क्या
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तुम मिरे ख़्वाब में नहीं आना
टूट जाते हैं मेरे ख़्वाब सभी
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इन समझ-दारों में कोई तो मिरी बात सुने
इन समझ-दारों में इक शख़्स तो पागल निकले
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वो मुझ को डसता है पर ज़हर छोड़ता ही नहीं
लिहाज़ रखता है कुछ आस्तीं में पलने का
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जाने क्या हश्र हो इन मोम-सिफ़त लोगों का
इन दिनों वक़्त के सूरज में तमाज़त है बहुत
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ज़ुल्म की इब्तिदा पे ख़त्म हुई
ज़ब्त की मेरे इंतिहा आख़िर
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पहले हँसने तो दो मुसीबत पर
फिर ये सोचेंगे क्या किया जाए
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क्या करते उस से हाथ मिला कर बताइए
दिल कैसे मिलता जिस से तबी'अत नहीं मिली
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आप की तल्ख़ियाँ भी सह लूँगा
मुझ को 'आदत है ज़हर पीने की
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ख़ुदकुशी भी हराम है या-रब
दिल की वहशत का क्या 'इलाज करूँ
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ज़मीं के चेहरे पे ऐ ख़ून मलने वालो सुनो
ज़मीं हिली तो तुम्हें ख़ाक में मिला देगी
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वक़्त के साथ हुस्न ढलता है
तुम मगर अब भी ख़ूबसूरत हो
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बद-सुलूकी पे तिरी हम से रिवायत के अमीन
अब तुझे लौट के गाली भी नहीं दे सकते
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जब से देखा है उस के चेहरे को
तितलियाँ उड़ रही हैं आँखों में
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हम तिरे हिज्र की सभी रातें
पी के सिगरेट गुज़ार देते हैं
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जाने क्यों हिज्र के सभी मौसम
तेरे लहजे में बात करते हैं
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मेरी बीनाई छीन ली जिस ने
आप भी वो ही ख़्वाब देखते हो
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फिर वही ज़िद कि दिल को समझा लो
दिल मिरी बात मानता कब है
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हर एक बार वफ़ाओं पे ज़र्ब लगती है
हर एक बार मिरा प्यार हार जाता है
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