मोहम्मद मज़हर नियाज़ी के शेर
ये कमरा बंद है चारों तरफ़ से
उदासी किस तरफ़ से आ रही है
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हज़ारों आँखें मुझे बे-ज़बाँ समझती हैं
जो देखता है मैं उस को सुनाई देता हूँ
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तू बहुत ख़ुश नज़र आता है मुझे इतना बता
मुझ से पहले भी कोई शख़्स यहाँ आया था
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रास्ते की नमी बताती है
आबला-पा यहाँ से गुज़रे हैं
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शहर छोटा है मगर दिल है कुशादा इतना
हम बड़े शहर में होते तो समुंदर होते
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मैं न मिलता अगर मसाफ़त को
रास्ते की थकन कहाँ जाती
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घर से निकलूँ तो खिलौने भी उठा लेता हूँ
मुझ से रोते हुए बच्चे नहीं देखे जाते
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बक़ाया ज़ख़्म इज़ाफ़ी दिए गए मुझ को
मिरे लिए तो तिरा इंतिज़ार काफ़ी था
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नज़र के पार भी सब्ज़ा बिछा है
मोहब्बत दूर तक फैली हुई है
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उसे कहो कि यहाँ इतनी देर तक तो रुके
कि सारे शहर की आब-ओ-हवा बदल जाए
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नूर से दूर सियह-रात में ज़िंदा रहना
कितना मुश्किल है मज़ाफ़ात में ज़िंदा रहना
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वो जब चेहरा दूसरी जानिब कर लेता है
मैं अपनी तस्वीर में आधा रह जाता हूँ
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