मुईद रशीदी के शेर
चंद यादों के दिए थोड़ी तमन्ना कुछ ख़्वाब
ज़िंदगी तुझ से ज़ियादा नहीं माँगा हम ने
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उस बार उजालों ने मुझे घेर लिया था
इस बार मिरी रात मिरे साथ चली है
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मुझ को पाने की तमन्ना में वो ग़र्क़ाब हुआ
मैं ने साहिल की तमन्ना में उसे खोया है
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जो बिछड़ गया वो मिला नहीं ये सवाल था
जो मिला नहीं वो बिछड़ गया ये कमाल है
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ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
नादान थे नादान हैं नादान रहेंगे
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ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के
मैं ख़ुद को जोड़ते रहने में टूट जाता हूँ
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वो चाहते हैं कि हर बात मान ली जाए
और एक मैं हूँ कि हर बात काट देता हूँ
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इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों को ग़ज़ल कर लेना
शोर को शेर बनाने में जिगर लगता है
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लम्हे लम्हे से बनी है ये ज़माने की किताब
नुक़्ता नुक़्ता यहाँ सदियों का सफ़र लगता है
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ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
तेरे कूचे की हवा हम से ख़फ़ा लगती है
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हम यही समझे थे इक दिल ही तो है अपने लिए
हम कहाँ समझे थे इतना सर-फिरा हो जाएगा
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उस को भी किसी तरह भरोसा नहीं था
मैं ने भी किसी तौर सफ़ाई नहीं दी
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इसी जवाब के रस्ते सवाल आते हैं
इसी सवाल में सारा जवाब ठहरा है
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ज़िंदगी आज ज़रा हँस के गले लग मुझ से
तेरी आँखों में नदामत नहीं देखी जाती
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ख़्वाब में तोड़ता रहता हूँ अना की ज़ंजीर
आँख खुलती है तो दीवार निकल आती है
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अब इस से पहले कि रुस्वाई अपने घर आती
तुम्हारे शहर से हम बा-अदब निकल आए
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ख़ुद को बर्बाद कर के देखना था
ख़ुद को बर्बाद कर के देख लिया
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ठहरे हुए पानी का मुक़द्दर नहीं होता
बहते हुए पानी का तक़ाज़ा है गुज़र जा
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ख़ौफ़ है धुंद भरी रात है तन्हाई है
मेरे कमरे में अभी रात है तन्हाई है
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कोई आता है या नहीं आता
आज ख़ुद को पुकार कर देखें
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धोका है नुमाइश है तमाशा है गुज़र जा
ये रौनक़-ए-बाज़ार ये दुनिया है गुज़र जा
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ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
नादान थे नादान हैं नादान रहेंगे
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आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा
मैं ख़ुद को देखता रहा मैं ख़ुद को सोचता रहा
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इश्क़ करने के बाद भी कुछ लोग
ये समझते हैं कुछ किया ही नहीं
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जाने कितना वक़्त लगेगा ख़ुद से बाहर आने में
तन्हाई का शोर बहुत है शहरों के वीराने में
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एक खिड़की खुली रहती है नज़र में हर दम
एक मंज़र पस-ए-मंज़र भी नज़र आता है
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अब ए'तिबार नहीं मेरी जाँ किसी का नहीं
चराग़ सब के लिए है धुआँ किसी का नहीं
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शहर अब माँगता है साँस भी लेने का हिसाब
ज़िंदगी मुझ से क़यामत का सबब पूछती है
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तू मुझे ज़हर पिलाती है ये तेरा शेवा
ऐ मिरी रात तुझे ख़ून पिलाया मैं ने
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कुछ अजनबी रस्तों से चराग़ों की थकन का
बे-नाम सा रिश्ता है तो बे-नाम ही रह जाए
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अपनी तन्हाई को बाज़ार समझते रहे हम
ज़िंदगी तुझ को ख़रीदार समझते रहे हम
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ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
तेरे कूचे की हवा हम से ख़फ़ा लगती है
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चैन पड़ता ही नहीं और ये दिल
रोज़ कहता है कि यूँ है यूँ है
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अपनी ज़ात से आगे जाना है जिस को
उस को बर्फ़ से पानी होना पड़ता है
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इस बार मिरी रूह पे तलवार चली है
इस बार सँभलने में ज़रा देर लगेगी
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हम तिरे शहर से मिलते हैं गुज़र जाते हैं
तुझ से मिलने में तो तलवार निकल आती है
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अब के वहशत ने मुझे रोक लिया है वर्ना
पिछले मौसम की तरह लौट के घर जाना था
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साँसों में कोई ख़ून सा दरिया है कि मैं हूँ
सीने में कोई शोर सा बरपा है कि तुम हो
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जब ये जिस्म सुलगता है तो रूह भी जलने लगती है
परवाने का इश्क़ मुकम्मल होता है जल जाने में
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छोटी सी एक बात का अफ़्साना हो गया
छोटी सी एक बात छुपाने से रह गई
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बुत तराशा था इन्ही हाथों से मैं ने एक दिन
पर किसे मा'लूम था वो बुत ख़ुदा हो जाएगा
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ये हिजरतों के तमाशे ये क़र्ज़ रिश्तों के
मैं ख़ुद को जोड़ते रहने में टूट जाता हूँ
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ये मिरा शहर कि जीने नहीं देता मुझ को
अब तिरा नाम भी लेते हुए डर लगता है
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वो चाहते हैं कि हर बात मान ली जाए
और एक मैं हूँ कि हर बात काट देता हूँ
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तिरे विसाल की रानाइयों से डरता हूँ
मुझे तो हिज्र के आदाब भी नहीं मालूम
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इक नज़र देख मिरे दिल की तरफ़ जान-ए-मुराद
आइना सीना-ए-सद-चाक से बेहतर तो नहीं
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एक हंगामा शब-ओ-रोज़ बपा रहता है
ख़ाना-ए-दिल में निहाँ जैसे ख़ुदा रहता है
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ख़ुद को हम जोड़ने की ख़्वाहिश में
कितने ख़ानों में टूट जाते हैं
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