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नज़ीर बनारसी

1909 - 1996 | बनारस, भारत

नज़ीर बनारसी के शेर

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एक दीवाने को जो आए हैं समझाने कई

पहले मैं दीवाना था और अब हैं दीवाने कई

उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में

एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया

एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया

मैं ये समझा भूलने वाले को मैं याद गया

ये इनायतें ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी

मिरी ख़ैरियत भी पूछी किसी और की ज़बानी

मिरी बे-ज़बान आँखों से गिरे हैं चंद क़तरे

वो समझ सकें तो आँसू समझ सकें तो पानी

वो आइना हूँ जो कभी कमरे में सजा था

अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दूसरों से कब तलक हम प्यास का शिकवा करें

लाओ तेशा एक दरिया दूसरा पैदा करें

ये करें और वो करें ऐसा करें वैसा करें

ज़िंदगी दो दिन की है दो दिन में हम क्या क्या करें

जी में आता है कि दें पर्दे से पर्दे का जवाब

हम से वो पर्दा करें दुनिया से हम पर्दा करें

अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीक

हम अपना घर जलाते तो और क्या करते

आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी

शम्अ जलने भी पाई रौशनी होने लगी

दिल की उजड़ी हुई हालत पे जाए कोई

शहर आबाद हुए हैं इसी वीराने से

बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया

ख़ुद भी तन्हा हो गए मुझ को भी तन्हा कर दिया

रास्ता रोके हुए कब से खड़ी है दुनिया

इधर होती है ज़ालिम उधर होती है

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