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परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

1866 | दिल्ली, भारत

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ के शेर

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आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ

उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई

ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद

फ़र्श-ए-ज़मीं पे पाँव दिमाग़ आसमान पर

मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में बुतो

ईमान का ख़याल इस्लाम का लिहाज़

वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को

जिस ने दुश्वार किया है मिरी आसानी को

गर आप पहले रिश्ता-ए-उल्फ़त तोड़ते

मर मिट के हम भी ख़ैर निभाते किसी तरह

निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद

और देखते हैं अबरू-ए-ख़मदार की तरफ़

क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को

मस्जिदें काफ़ी होतीं क्या ख़ुदा की याद को

भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि हों

कुछ खटकते हुए अल्फ़ाज़ नज़र आते हैं

जुनूँ होता है छा जाती है हैरत

कमाल-ए-अक़्ल इक दीवाना-पन है

आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था

किसी के बस में था मजबूर था लाचार था क्या था

देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में

तू सरापा हुस्न का नक़्शा है मैं तस्वीर-ए-इश्क़

फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में

ढाल में हैं फूल फल तलवार में

बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला

दो फ़रंगी सैर को निकले हैं मुल्क-ए-शाम से

मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता

उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़

ठहर जाओ बोसे लेने दो तोड़ो सिलसिला

एक को क्या वास्ता है दूसरे के काम से

इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत

मख़्लूक़ में माबूद में बंदे में ख़ुदा में

बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल

सूरज ग़ुरूब होते ही ज़ाहिर हो नूर-ए-सुब्ह

किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा

मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों

मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का

गर हुक्म हो शुरूअ' करे अपना काम हिर्स

होती शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ

गर पहले भी बुतख़ानों में होते सनम ऐसे

अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू सुन

नींद उड़ाता हो जो अफ़्साना उस अफ़्साना से भाग

हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी

ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था

वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह

पूरी अभी ख़ुदा की तरफ़ लौ लगी नहीं

किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर

इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'

दिलवाइए बोसा ध्यान भी है

इस क़र्ज़ा-ए-वाजिब-उल-अदा का

सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई

उड़ गई काफ़ूर बन बन कर हया आई हुई

कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में

अब से पिया करेंगे मिला कर गुलाब में

मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं

उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर

सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय

ज़ोफ़ सा कुछ गया ईमान में

दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे

रहेंगी उन के संददुक़चा में दीं की कुंजियाँ कब तक

उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था

मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर

चुभेंगे ज़ीरा-हा-ए-शीशा-ए-दिल दस्त-ए-नाज़ुक में

सँभल कर हाथ डाला कीजिए मेरे गरेबाँ पर

मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल

बरसे गिर पानी की जा आब-ए-बक़ा मेरे बा'द

अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को

वहीं पहुँचाएगा आशिक़ किसी तदबीर से काग़ज़

कभी जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग

पिलाओ लाख उसे बद-मज़ा दवा-ए-फ़िराक़

जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल

मअ'नी नहीं हैं बिल्कुल मुझ में अगर बयाँ हूँ

पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू

मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़

पूछ ले 'परवीं' से या क़ैस से दरयाफ़्त कर

शहर में मशहूर है तेरे फ़िदाई का इश्क़

पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया

ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह

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