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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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राग़िब देहलवी

ग़ज़ल 2

 

नज़्म 1

 

अशआर 8

अगर चलता सहारों पर ही 'राग़िब'

तो चलने के कभी क़ाबिल होता

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अब दिल में आरज़ू-ए-चमन ही नहीं रही

क़िस्से सुने जो हम ने क़फ़स में बहार के

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और बढ़ जाता है दिल में मिरे शौक़-ए-मंज़िल

जब परेशान सी ये गर्द-ए-सफ़र होती है

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ये सब माह-ओ-अंजुम मिरे वास्ते हैं

मगर इस ज़मीं पर मैं क़ैद-ए-जहाँ हूँ

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शौक़-ए-मंज़िल मुझे यूँ ले के उड़ा

ख़ार देखे रहगुज़र देखी

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