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साक़ी अमरोहवी

1925 - 2005 | कराची, पाकिस्तान

साक़ी अमरोहवी के शेर

तू नहीं तो तिरा ख़याल सही

कोई तो हम-ख़याल है मेरा

ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही

दिन गुज़ारूँ तो कोई रात सुहानी आए

मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है

ख़ुद मोअल्लिम हूँ ख़ुद किताब हूँ मैं

दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी था

घर मुझे रास आया तो किधर जाऊँगा

मुझ को क्या क्या दुख मिले 'साक़ी'

मेरे अपनों की मेहरबानी से

में अब तक दिन के हंगामों में गुम था

मगर अब शाम होती जा रही है

ख़्वाब था या शबाब था मेरा

दो सवालों का इक जवाब हूँ मैं

कितने ही ग़म निखरने लगते हैं

एक लम्हे की शादमानी से

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