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यासीन ज़मीर

यासीन ज़मीर

ग़ज़ल 1

 

अशआर 6

मुमकिन है अश्क बन के रहूँ चश्म-ए-यार में

मुमकिन है भूल जाए ग़म-ए-रोज़गार में

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ज़ंजीर ज़ुल्फ़-ए-सियाह समुंदर निगाह-ए-शोख़

जाऊँ कहाँ फ़रार का रस्ता कोई तो हो

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हर आँख इक सवाल तही-दस्त के लिए

कब तक मरूँगा मेरे ख़ुदा बार बार मैं

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कुछ वक़्त अपने साथ गुज़ारूँगा मैं 'ज़मीर'

ख़ुद से अगर मिला जो कभी कू-ए-यार में

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किस से करूँ मैं अपनी तबाही का अब गिला

ख़ुद ही कमाँ-ब-दस्त हूँ ख़ुद ही शिकार मैं

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