ज़फ़र ताबाँ के शेर
कहते हैं इश्क़ का अंजाम बुरा होता है
अब तो कुछ भी हो मोहब्बत का निभाना है हमें
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ख़लिश-ए-इश्क़ से बचपन है दिल एक तरफ़
इस पे या-रब ग़म-ए-हस्ती भी उठाना है हमें
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याद में तेरी दो-आलम को भुलाना है हमें
उम्र भर अब कहीं आना है न जाना है हमें
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अब भी ख़ुदा-परस्त है दैर-ओ-हरम की क़ैद में
हाए निगाह-ए-ना-रसा हाए मज़ाक़-ए-ना-तमाम
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ख़ूबी ओ शान-ए-दिलबरी ग़म्ज़ा-ओ-नाज़ ही नहीं
हुस्न में वो अदा भी है जिस का नहीं है कोई काम
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ताइर-ए-ख़स्ता-बाल को दाम भी कुंज-ए-आशियाँ
मुर्ग़-ए-चमन-नवर्द को गोशा-ए-आशियाँ भी दाम
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