Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

CANCEL DOWNLOAD SHER
img

Ek Shaam Tumhare Hisse Ki

Product Details

Author: Kashif Husain Gaair
Language: Hindi
Publisher: Rekhta Publications
Binding: Paperback (120 pg)
Year: 2018 (1st Edition)

Also available on

flipkart_logo amazon_logo

About This Book

About Book

प्रस्तुत किताब 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा’ सिलसिले के तहत प्रकाशित उर्दू शाइर काशिफ़ हुसैन ग़ाइर का ताज़ा काव्य-संग्रह है| यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

 

 

Read Sample Data

फ़ेह्‍‌रिस्त

 फ़ेह्रिस्त
1 हर शाम दिलाती है उसे याद हमारी
2 जो अश्क बच गए उन्हें लाता हूँ काम में
3 हाल पूछा न करे, हाथ मिलाया न करे
4 इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है
5 वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
6 वो हंस रहा है उसे दिल दुखाना आता है
7 बुला रहा है मुझे रहगुज़ार अपनी तरफ़
8 नज़र मिली तो नज़ारों में बाँट दी मैंने
9 अहवाल पूछिए मिरा आज़ार जानिए
10 कुछ दिनों ही बेदिली दीवार थी
11 आस्माँ आँख उठाने से खुला
12 वो मुझे मर नहीं जाने देते
13 मैं न पहुंचा तो घर गए मेरे
14 वक़्त मज़दूर है, उजरत दीजे
15 दरवाज़े को दस्तक ज़िन्दा रखती है
16 हर एक मन्ज़र-ए-जाँ को बुझा के रख दिया है
17 बज़्म से दूर रखा हल्क़ा-ए-तन्हाई ने
18 बने हैं काम सब उलझन से मेरे
19 ख़्वाब लिपटे हैं अ’जब दीदा-ए-बेदार के साथ
20 दिल है मामूर तिरे ग़म की निगहबानी पर
21 ग़ुबार-ए-दश्त-ए-यकसानी से निकला
22 मुझसे मन्सूब है ग़ुबार मिरा
23 जाऊँ जिस सम्त इजाज़त है मुझे
24 लज़्ज़त-ए-आवारगी जाती रही
25 मदावा-ए-आलाम हो जाएगा
26 जाने क्या दिल पे बार है ऐसा
27 ग़लत नहीं है किसी को ये मश्वरा देना
28 चराग़-ए-तअ’ल्लुक़ बुझा देने वाले
29 ग़ालिबन वक़्त की कमी है यहाँ
30 अचानक किसको याद आई हमारी
31 ख़याल-ओ-ख़्वाब में आए हुए से लगते हैं
32 मिरी आँखों को धोका हो रहा है
33 रंग जमाता रहता हूँ
34 हमारी बात का उलटा असर न पड़ जाए
35 दस्त-बरदार ज़िन्दगी से हुआ
36 ये सारा मस्अला मिरी तश्कीक से उठा
37 दो चार दिन में ग़म को ठिकाने लगाऊँगा
38 सुनहरा दिन शब-ए-तारीक लग रहा है मुझे
39 ठीक कहते हैं सभी, इ’श्क़ परेशानी है
40 चाँद क्या अब्र की चादर से निकल आया है
41 किसी को कुछ, किसी को कुछ बताते
42 साथ रह कर भी कोई साथ कहाँ देता है
43 ये मसाफ़त नहीं आसान, कहाँ जाता है
44 सुब्ह फिर छोड़ के जाने को थी इक बार मुझे
45 फ़राग़तों को भी मस्रूफ़-ए-कार लाया हूँ
46 हवा का ख़ौफ़ अंधेरे का डर भी रहता है
47 कौन था जिसने उदासी की पज़ीराई की
48 वजूद अपना बराए-अ’दम बनाता हूँ
49 वर्ना इस शह्र में रहता है कोई क्या आबाद
50 हर गाम बदलते रहे मन्ज़र मिरे आगे

 

1

हर शाम दिलाती है उसे याद हमारी

इतनी तो हवा करती है इमदाद1 हमारी

1 सहायता, मदद

 

कुछ हैं भी अगर हम तो गिरफ़्तार हैं अपने

ज़न्जीर नज़र आती है आज़ाद हमारी

 

ये शह्‌र नज़र आता है हमज़ाद1 हमारा

और गर्द नज़र आती है फ़र्याद2 हमारी

1 साथ पैदा होने वाला 2 शिकायत, दुहाई

 

ये राह बता सकती है हम कौन हैं, क्या हैं

ये धूल सुना सकती है रूदाद1 हमारी

1 कहानी, वृतांत

 

हम गोशा-नशीनों1 से है मानूस कुछ ऐसे

जैसे कि ये तन्हाई हो औलाद हमारी

1 एकान्त वास

 

अच्छा है कि दीवार के साये से रहें दूर

पड़ जाए न दीवार पे उफ़्ताद1 हमारी

1 मुसीबत


 

2

जो अश्क बच गए उन्हें लाता हूँ काम में

थोड़ी सी धूप रोज़ मिलाता हूँ शाम में

 

बस्ती में इक चराग़ के जलने से रात भर

क्या क्या ख़लल1 पड़ा है सितारों के काम में

1 विघ्न, रुकावट

 

इक शख़्स अपनी ज़ात1 की ता’मीर2 छोड़ कर

मस्‍रूफ़ आज कल है मिरे इन्हिदाम3 में

1 व्यक्तित्व, शख़्सियत 2 निर्माण 3 बरबादी

 

मुझको भी इस गली में मोहब्बत किसी से थी

अब नाम क्या बताऊँ रखा क्या है नाम में

 

काशिफ़ हुसैन दश्त में जितने भी दिन रहा

बैठा नहीं ग़ुबार मिरे एहतिराम1 में

1 सम्मान


 

3

हाल पूछा न करे, हाथ मिलाया न करे

मैं इसी धूप में ख़ुश हूँ कोई साया न करे

 

मैं भी आख़िर हूँ इसी दश्त का रहने वाला

कैसे मजनूँ से कहूँ ख़ाक उड़ाया न करे

 

आइना मेरे शब-ओ-रोज़ से वाक़िफ़1 ही नहीं

कौन हूँ, क्या हूँ मुझे याद दिलाया न करे

1 परीचित

 

ऐ’न-मुम्किन है चली जाए समाअ’त1 मेरी

दिल से कहिए कि बहुत शोर मचाया न करे

1 सुनने की ताक़त

 

मुझसे रस्तों का बिछड़ना नहीं देखा जाता

मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे

 


 

4

इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है

कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है

 

ज़िन्दा रहने का नश्शा ही ऐसा है

जितनी भी हो मुद्दत कम पड़ जाती है

 

अपने आपसे मिलता हूँ मैं फ़ुर्सत में

और फिर मुझको फ़ुर्सत कम पड़ जाती है

 

सहरा में आ निकले तो मा’लूम हुआ

तन्हाई को वुस्अ’त1 कम पड़ जाती है

1 फैलाव, विस्तार

 

कुछ ऐसी भी दिल की बातें होती हैं

जिन बातों को ख़ल्वत1 कम पड़ जाती है

1 एकान्त

 

इक दिन यूँ होता है ख़ुश रहते रहते

ख़ुश रहने की आ’दत कम पड़ जाती है

 

काशिफ़ ग़ाइर दिल का क़र्ज़ चुकाने में

दुनिया भर की दौलत कम पड़ जाती है


 

5

वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका

आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका

 

इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़

लहरों के साथ साथ किनारा भी जा चुका

 

दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है

जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका

 

क्या जाने किस ख़याल में उ’म्‍र-ए-रवाँ1 गई

हाथों से ज़िन्दगी के ख़सारा2 भी जा चुका

1 गुज़रा हुआ वक़्त 2 नुक़्सान

 

काशिफ़ हुसैन छोड़िए अब ज़िन्दगी का खेल

जीता भी जा चुका उसे हारा भी जा चुका

 


 

6

वो हंस रहा है उसे दिल दुखाना आता है

मैं रो रहा हूँ मुझे मुस्कुराना आता है

 

हम ऐसे लोग ज़ियादा जिया नहीं करते

हमारे बाद हमारा ज़माना आता है

 

नए मकाँ में नए ख़्वाब देखते हैं लोग

हमें तो याद वही घर पुराना आता है

 

दिये जलाऊँगा यूँही मैं सुब्ह होने तक

वो दिल जलाए जिसे दिल जलाना आता है

 

ये बह्--श्क़ है ग़ाइर कोई मज़ाक़ नहीं

वही बचेगा जिसे डूब जाना आता है


 

7

बुला रहा है मुझे रहगुज़ार अपनी तरफ़

हवा को खींच रहा है ग़ुबार अपनी तरफ़

 

मुझे किसी की तरफ़ देखना नहीं पड़ता

मैं देख लेता अगर एक बार अपनी तरफ़

 

पड़ा हुआ था मैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा1 सा

उड़ा के ले गई बाद-ए-बहार2 अपनी तरफ़

1 ख़िज़ाँ के सूखे पत्ते 2 बहार की हवा

 

सवाल ये है कि अब किस तरह वसूल1 करूँ

निकल रहा है मिरा कुछ उधार अपनी तरफ़

1 प्राप्ति, प्राप्त करना

 

जो दिल में आई कभी रफ़्तगाँ1 से मिलने की

क़दम उठे मिरे बे-इख़्तियार2 अपनी तरफ़

1 रफ़्त: का बहुवचन, गए हुए लोग या’नी मरे हुए लोग 2 सहसा, अचानक

 

न जाने आज किधर को निकल गया ग़ाइर

तिरी तरफ़ ही वो पहुँचा न यार अपनी तरफ़

 


 

8

नज़र मिली तो नज़ारों में बाँट दी मैंने

ये रौशनी भी सितारों में बाँट दी मैंने

 

बस एक शाम बची थी तुम्हारे हिस्से की

मगर वो शाम भी यारों में बाँट दी मैंने

 

जनाब क़र्ज़ चुकाया है यूँ अ’नासिर1 का

कि ज़िन्दगी इन्ही चारों में बाँट दी मैंने

1 उ’न्सुर का बहुवचन, तत्वों

 

पुकारते थे बराबर मुझे सफ़र के लिए

मता-ए’-ख़्वाब1 सवारों में बाँट दी मैंने

1 ख़्वाब की पूंजी

 

हवा-मिज़ाज1 था करता भी क्या समुन्दर का

इक एक लह्‌र किनारों में बाँट दी मैंने

1 हवा का स्वभाव रखने वाला


 

Speak Now