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तरकश प्रदीप

1984 | दिल्ली, भारत

तरकश प्रदीप के शेर

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और भटकेंगे तो कुछ और नया देखेंगे

हम तो आवारा परिंदे हैं हमारा क्या है

हम तो कहते हैं मोहब्बत में मज़ा है ही नहीं

आप कहते हैं तो फिर मान लिया जाता है

मेरा पिंजरा खोल दिया है तुम भी अजीब शिकारी हो

अपने ही पर काट लिए हैं मैं भी अजीब परिंदा हूँ

पागल वहशी तन्हा तन्हा उजड़ा उजड़ा दिखता हूँ

कितने आईने बदले हैं मैं वैसे का वैसा हूँ

बनाता हूँ मैं तसव्वुर में उस का चेहरा मगर

हर एक बार नई काएनात बनती है

आज फिर ख़ुद से ख़फ़ा हूँ तो यही करता हूँ

आज फिर ख़ुद से कोई बात नहीं करता मैं

तुझे गले से लगा के भी देखा जाएगा

अभी तो मुझ को तिरा इंतिज़ार करना है

अब तो मैं और भी बुरा हूँ कि

अब ज़ियादा सुधर गया हूँ मैं

यूँ अपने आप को बर्बाद करता है कोई

मेरे दिल तू समझदार है नहीं है क्या

तुम ने तो आप ही पिंजरे को खुला छोड़ दिया

कोई ऐसे भी परिंदों को रिहा करता है

हुस्न होता है किसी शय का कोई अपना ही

और फिर देखने वाले की नज़र होती है

ख़ूब मुश्किल है पर आसान लिया जाता है

कितना हल्के में ये इंसान लिया जाता है

मुझ से कहते नहीं बनता कि सितम कम कीजे

फिर ऐसा हो किसी रोज़ मिरा ग़म कीजे

आप ने इस के फ़साने ही सुने होते हैं

और अचानक ये बला आप के सर होती है

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