ऐ परस्तार-ए-अदब रूह-ए-अदब शाह-ए-सुख़न
ज़ात से तेरी मुनव्वर थी अदब की अंजुमन
तू दरख़्शाँ माह-पारा था अदब के चर्ख़ का
शेक्सपियर शिबली और मिल्टन से भी तू था बड़ा
ऐ गुल-ए-नग़्मा के ख़ालिक़ ऐ पदम-भूषण 'फ़िराक़'
मिट नहीं सकता कभी दुनिया से तेरा फ़न 'फ़िराक़'
छाई है ग़म की घटा ग़मगीं है सारी काएनात
किस क़दर औसाफ़ की हामिल थी तेरी एक ज़ात
रो रहा है आज हर तिफ़्ल-ओ-जवाँ हर इक बशर
माह-ओ-अंजुम ग़ुंचा-ओ-गुल हर गली हर बाम-ओ-दर
तू नई हिन्दी की तरकीबों को राइज कर गया
जो तही गोशे थे उर्दू के उन्हें तो भर गया
लोच थी तेरी ज़बाँ में तेरे नग़्मों में कशिश
तू नहीं तो खाए जाती है मुझे दिल की ख़लिश
साज़ से आवाज़ से तू ने सँवारी हर ग़ज़ल
इक नए अंदाज़ से तू ने सँवारी हर ग़ज़ल
ऐ मुजाहिद ऐ मु'अल्लिम ऐ सुख़नवर ‘अस्र-साज़
हम न भूलेंगे तिरा अंदाज़-ए-फ़न सोज़ ओ गुदाज़
नाम तेरा सोने के लफ़्ज़ों में लिक्खा जाएगा
हर मोअर्रिख़ हर अदीब अपनी ज़बाँ पर लाएगा