अख़बार-नवीसो
सिर्फ़ चार चेहरे 'औरत के
अख़बार के पहले सफ़्हे पर
'औरत की नुमाइंदगी नहीं करते
क़लम तुम्हारा अहाता-ए-तहरीर में ला सकता नहीं उन चेहरों को
न कैमरा ही कोई तस्वीर खींच सकता है उन चेहरों की
जो किसी तर्के में हैं छुपे हुए और मतरूक हैं
जो ज़र और ज़मीन का ज़ाविया हैं तीसरा
समाज के ‘अलम-बरदारो
कच्चे चेहरे की विन्नी भी है कहीं
कारी का अध जला गुलाब भी
ग़म की हवेलियाँ भी हैं फ़र्श-ए-ज़ात में उलझी हुईं
राहदारियों में हैं घूमते
तीन हर्फ़ इक़रार के
सूरज भी हैं छुपे हुए हथेलियों की ओट में
रौशनी जिन के गुमान की सियाह ज़ुल्मतों में खो चुकी
क़िंदील-ए-ज़िंदगी की आस में
मिरे दानिशवरो
तहफ़्फ़ुज़-ए-हुक़ूक़-ए-निसवाँ का सेमिनार हो
या दस्तार वालों के बयान
चार चेहरे 'औरत के हों
या एक तारीख़ कैलेंडर की
भला कैसे
सदियों की चुप के भेद खोल पाएँगे