पहली शाम
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
तुम को देखा तो मिरे दिल को ये महसूस हुआ
हूर शायद कोई जन्नत से उतर आई है
या कोई ऐसी ग़ज़ल कह न सका मैं जिस को
बन के एक पैकर-ए-रंगीन नज़र आई है
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
जिस्म-ए-नाज़ुक से वो लिपटी हुई नाज़ुक सारी
जिस तरह सर्व से राबील लिपट जाती है
केंचुली में भरी या कोई सुनहरी नागिन
सिमटी-सिमटाई सी हर मोड़ पे बल खाती है
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
वो सियह-ज़ुल्फ़ वो आँखों में गुलाबी डोरे
जैसे मय-ख़ाने पे घनघोर घटा छा जाए
और फिर उस पे वो मय-पाश निगाहें तौबा
आदमी क्या है फ़रिश्तों को ख़ुमार आ जाए
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
तुम मुझे देख रही थीं 'अजीब अंदाज़ के साथ
मैं ने देखा तो बचा ली थीं निगाहें तुम ने
मुस्कुराहट पे तुम्हारी ये गुमाँ गुज़रा था
जैसे सुन ली हों मिरे दिल की कराहें तुम ने
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
जाम पे जाम पिलाती ही रही मस्त नज़र
और मैं प्यार की मस्ती में बहकता ही गया
दिल सियह-ज़ुल्फ़ के हल्क़ों में उतरता ही रहा
मैं भी इस तरह से चहका कि चहकता ही गया
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
दम-ए-रुख़्सत भी नवाज़िश का वही 'आलम था
चलते चलते भी उन आँखों से कई जाम चले
दिल में इक ख़्वाहिश-ए-बेताब लिए लौटा था
फिर यही शाम यही साक़ी-ए-गुलफ़ाम चले
मैं ने जिस रोज़ तुम्हें पहले-पहल देखा था
मेरी आँखों से वो मंज़र नहीं भूला जाता
उस हसीं शाम की उस रात की याद आती है
सामने आँखों के आ जाती है 'कामिल' तस्वीर
जब किसी बुत से मुलाक़ात की याद आती है
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.