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ग़ज़ल
बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ
आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
किस किस अपनी कल को रोवे हिज्राँ में बेकल उस का
ख़्वाब गई है ताब गई है चैन गया आराम गया
मीर तक़ी मीर
नज़्म
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
मैं एक बेकल सा आदमी हूँ बहुत ही बोझल सा आदमी हूँ
समझ रही है ये दुनिया मुझ को मैं एक पागल सा आदमी हूँ
तारिक़ क़मर
नज़्म
बरसात की बहारें
सुनते ही ग़म को मारे छाती है उमंडी आती
पी पी की धुन को सुन कर बे-कल हैं कहती जाती
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
काली दीवार
बेकल बहनें घायल माएँ और दुखी बेवाएँ
साजन तुम किस देस सिधारे सोचें महबूबाएँ