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ग़ज़ल
अक़्सा फ़ैज़
नज़्म
हश्र की सुब्ह दरख़्शाँ हो मक़ाम-ए-महमूद
चाँद का नाम तिरे चाक-गरेबानों में
मुब्तदी ढूँडते हैं मस्जिद-ए-अक़्सा में इमाम
आदिल मंसूरी
ग़ज़ल
हैं जितने भी रूप ज़िंदगी के किसी पे न ए'तिबार आया
वहाँ से दामन बचा के गुज़रे जहाँ पे कोई फ़रार आया
अक़्सा फ़ैज़
नअत
सारे नबियों के हैं झुरमुट में नबी-ए-आख़िर
क़ाबिल-ए-दीद है अक़सा की ज़मीं आज की रात
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
शिकस्त-ए-रंग
मुझे मग़्लूब करने को
मिरे जज़्बात के अंदोख़्ता हीलों को उकसा कर वो कहते हैं