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ग़ज़ल
मिरे मास्टर न होते जो उलूम-ओ-फ़न में दाना
कभी मौला-बख़्श-साहब का न मैं शिकार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
हिण्डोला
यहीं तुलू हुईं और यहीं ग़ुरूब हुईं
इसी ज़मीन से उभरे कई उलूम-ओ-फ़ुनून
फ़िराक़ गोरखपुरी
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नज़्म
ख़ातून-ए-मशरिक़
वक़्त से पहले बुला लेते हैं पीरी को उलूम
उम्र से आगे निकल जाते हैं चेहरे बिल-उमूम
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
सय्यद से आज हज़रत-ए-वाइ'ज़ ने ये कहा
आए नज़र उलूम-ए-जदीदा की रौशनी
जिस से ख़जिल हो नूर रुख़-ए-मेहर-ओ-माह का