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नज़्म
एहसास-ए-कामराँ
अज़्म-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ब-हज़ाराँ जबरूत
इक नए दौर का आग़ाज़ किया चाहता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
तू गिरोह-ए-फ़ुक़रा को न समझ बे-जबरूत
ज़ात-ए-मौला में यही लोग समा सकते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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नज़्म
वक़्त
दामन-ए-कोह में चलते हुए हल
सीना-ए-दहर पे इंसान के जबरूत की तारीख़ रक़म करते हैं