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तंज़-ओ-मज़ाह
सआदत हसन मंटो
ग़ज़ल
कहते ही नश्शा-हा-ए-ज़ौक़ कितने ही जज़्बा-हा-ए-शौक़
रस्म-ए-तपाक-ए-यार से रू-ब-ज़वाल हो गए
जौन एलिया
ग़ज़ल
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
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तंज़-ओ-मज़ाह
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
न जाने कौन सा जज़्बा था जिस ने ख़ुद ही 'नज़ीर'
मिरी ही ज़ात का दुश्मन बना दिया मुझ को