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मुईन अहसन जज़्बी

1912 - 2005 | अलीगढ़, भारत

प्रमुखतम प्रगतिशील शायरों में विख्यात/ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के समकालीन/अपनी गज़ल ‘मरने की दुआएँ क्यों माँगूँ.......’ के लिए प्रसिद्ध, जिसे कई गायकों ने स्वर दिए हैं

प्रमुखतम प्रगतिशील शायरों में विख्यात/ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के समकालीन/अपनी गज़ल ‘मरने की दुआएँ क्यों माँगूँ.......’ के लिए प्रसिद्ध, जिसे कई गायकों ने स्वर दिए हैं

मुईन अहसन जज़्बी

ग़ज़ल 34

नज़्म 12

अशआर 30

मुख़्तसर ये है हमारी दास्तान-ए-ज़िंदगी

इक सुकून-ए-दिल की ख़ातिर उम्र भर तड़पा किए

यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत

यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना

मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से

कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं

जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने

जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे

मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना

कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना

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ऑडियो 12

दिल सर्द हो तो वा लब-ए-गुफ़्तार क्या करें

अपनी निगाह-ए-शौक़ को रुस्वा करेंगे हम

जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया

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