aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "جھنڈ"
इदारा-तुल-मुसन्निफ़ीन, झंग
पर्काशक
मास्टर झंडे खाँ
लेखक
गौरान्दाया जन्डहोक
झुन्नू खां
जबरा ने ख़ौफ़-ज़दा निगाहों से अलाव की जानिब देखा।“मुन्नी से कल ये न जड़ देना कि रात ठंड लगी और ताप-ताप कर रात काटी। वर्ना लड़ाई करेगी।”
तुम को पेड़ों के पीछे दरख़्तों के झुण्डऔर दीवार की पुश्त पर ढूँडने में मगन हूँ
इतने में भेड़ें खेत के पास आ गईं। झींगुर ने ललकार कर कहा, अरे ये भेड़ें कहाँ लिए आते हो। कुछ सूझता है कि नहीं?बुद्धू इन्किसार से बोला, महतो, डांड पर से निकल जाएँगी, घूम कर जाऊँगा तो कोस भर का चक्कर पड़ेगा। झींगुर, तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँ, डांड ही पर से ले जाना है तो और खेतों के डांडे से क्यों नहीं ले गए? क्या मुझे कोई चमार-भंगी समझ लिया है या रुपये का घमंड हो गया है? लौटाओ उनको। बुद्धू, महतो आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से आऊँ तो जो डन्द (सज़ा) चाहे देना।
रूपा ने सिसकियों में कहा, “तुम बार बार पति न कहो नत्थू, मेरी जवानी मेरी आशा, मेरी दुनिया, कभी की विध्वा हो चुकी है। तुम मेरी मांग में सींदूर भरना चाहते हो और मैं चाहती हूँ कि सारे बाल ही नोच डालूं... नत्थू अब कुछ नहीं हो सकेगा। मेरी झोली के बेर ज़मीन पर गिर कर... सबके सब मोरी में जा पड़े हैं। अब उन्हें बाहर निकालने से क्या फ़ायदा? उसका नाम पूछ कर तुम...
मैं आस-पास के मौसम से हूँ तर-ओ-ताज़ामैं अपने झुण्ड से निकलूँ तो बे-समर हो जाऊँ
झुण्डجھنڈ
group, cluster,
Tareekh-e-Jhang
बिलाल जुबैरी
Tazkira Auliya-e-Jhang
तज़किरा
Lal Jhanda Aur Inquilab-e-Hindustan
स्वतंत्रता आंदोलन
क़ौमी झंडे की कहानी
सय्यद इब्राहीम फ़िक्री
अन्य
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रियाज़ुद्दीन रियाज़
नाटक / ड्रामा
झनक झनक पायल बाजे
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Faishan Ka Jhanda
आर. पी. स्वतंत्र
“परे हट जाओ, मैं किनारे पर आना चाहती हूँ।”मैंने देखा आवाज़ समुंदर में से आ रही थी। लाँबे रेशमीं घने बाल और जल-परी का चेहरा। हँसता हुआ। मुस्कुराता हुआ और दूर परे उफ़ुक़ पर एक कश्ती, जिसका मटियाला बादबान धूप में सोने के पत्रे की तरह चमकता नज़र आ रहा था।
उसने दिल में दुहराया,अ’रब-ए-अ’ज़ीम। इसकी हिफ़ाज़त करना
पंचायत की सदा किस के हक़ में उट्ठेगी उसके मुताल्लिक़ शेख़ जुम्मन को अंदेशा नहीं था। क़ुर्ब-ओ-जवार, हाँ ऐसा कौन था जो उनका शर्मिंदा-ए-मिन्नत न हो? कौन था जो उनकी दुश्मनी को हक़ीर समझे? किस में इतनी जुर्अत थी जो उनके सामने खड़ा हो सके। आसमान के फ़रिश्ते तो पंचायत करने आएँगे नहीं, मरीज़ ने आप ही दवा तलब की।इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी ख़ाला लकड़ी लिए आस-पास के गाँव के चक्कर लगाती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गई थी। एक क़दम चलना मुश्किल था मगर बात आ पड़ी थी, उसका तस्फ़िया ज़रूरी था। शेख़ जुम्मन को अपनी ताक़त, रसूख़ और मंतिक़ पर कामिल एतिमाद था। वो किसी के सामने फ़र्याद करने नहीं गए।
नाक नोकीली, आँखें बड़ी जिनसे वहशत टपकती थी। सर पर ख़ुश्क और ख़ाक-आलूदा बालों का एक हुजूम। बड़े से भूरे कोट में वो वाक़ई शायर मालूम हो रहा था... एक दीवाना शायर, जैसा कि उसने ख़ुद इस नाम से अपने आपको मुतआ’रिफ़ कराया था।मैंने अक्सर औक़ात अख़बारों में एक जमा’त का हाल पढ़ा था। उस जमा’त के ख़यालात दीवाने शायर के ख़यालात से बहुत हद तक मिलते जुलते थे। मैंने ख़याल किया कि शायद वो भी उसी जमा’त का रुक्न है।
जब वो कोठड़ी के अंदर जाने लगी तो अब्दुलग़फ़्फ़ार ने पूछा, “माँ, ये सुबह-सवेरे कौन आदमी आया था?”अब्दुलग़फ़्फ़ार इस क़िस्म के सवाल आमतौर पर पूछा करता था, इसलिए उसकी माँ जवाब दिए बग़ैर अन्दर चली गई और अपने छोटे लड़के को जगाने लगी, “ए रहमान, ए रहमान, उठ उठ।”
सब सिख मिलकर हँसने लगे मगर परमेशर सिंह बच्चों की तरह बिलबिला कर कुछ यूँ रोया कि दूसरे सिख भौंचक्के से रह गए और परमेशर सिंह रोनी आवाज़ में जैसे बैन करने लगा, “सब बच्चे एक से होते हैं यारो... मेरा करतार भी तो यही कहता था। वो भी तो उसकी माँ को भूसे की कोठरी में पड़ा मिला था।”किरपान नियाम में चली गई। सिखों ने परमेशर सिंह से अलग कुछ खुसुर-पुसुर की। फिर एक सिख आगे बढ़ा। बिलकते हुए अख़्तर को बाज़ू से पकड़े वो चुपचाप रोते हुए परमेशर सिंह के पास लाया और बोला, "ले परमेशरे, सँभाल इसे। केस बढ़ा कर इसे अपना करतार बना ले। ले पकड़।"
फूल के झुण्ड से हट कर कोई प्यासा भँवरातेरे पहलू से गुज़र जाए तो शक करता हूँ
जहाँ तक नज़र जाती थी साहिल के किनारे नारियल के पेड़ों के झुंड फैले हुए थे, सूरज दूर समंदर में डूब रहा था और आकाश पर रंगा-रंग के बादल तैर रहे थे, बादल जिनमें आग के शो'लों जैसी चमक थी और मौत की सियाही, सोने की पीलाहट और ख़ून की सुर्ख़ी।ट्रावनकोर का साहिल अपने क़ुदरती हुस्न के लिए सारी दुनिया में मशहूर है, मीलों तक समंदर का पानी ज़मीन को काटता, कभी पतली नहरों के लहरिए बनाता, कभी चौड़ी चकली झीलों की शक्ल में फैलता हुआ चला गया। उस घड़ी मुझ पर भी इस हसीन मंज़र का जादू धीरे-धीरे असर करता जा रहा था, समंदर शीशे की तरह साकिन था मगर पच्छिमी हवा का एक हल्का सा झोंका आया और समंदर की सत्ह पर हल्की-हल्की लहरें ऐसे खेलने लगीं जैसे किसी बच्चे के होंटों पर मुस्कुराहट खेलती है, दूर... बहुत दूर... कोई मछेरा बाँसुरी बजा रहा था, इतनी दूर कि बाँसुरी की पतली धीमी तान फैले हुए सन्नाटे को और गहरा बना रही थी।
“वो फ़रमाता है”, सौस ने एक रेशमी पार्चे का टुकड़ा अलमारी में से खींचा और पढ़ना शुरू’ किया... “इंसानों में ख़ौफ़-ओ-दहशत न फैलाओ ख़ुदा, इसकी सज़ा देगा। जो शख़्स कहता है सारी ताक़त और सारा इक़्तिदार मेरा है अक्सर वही ठोकर खा कर गिर भी पड़ता है। हमेशा बैत-ए-तरह्हुम में सुकूनत रखो। देने वाला ख़ुदा है। बंदा ये न समझे कि वो ख़ुद कुछ हासिल कर सकता है। और ख़बरदार......
कचहरियों से लेकर लॉ कॉलेज तक बस यही कोई दो फ़र्लांग लंबी सड़क होगी, हर-रोज़ मुझे इसी सड़क पर से गुज़रना होता है, कभी पैदल, कभी साईकल पर, सड़क के दो रू ये शीशम के सूखे-सूखे उदास से दरख़्त खड़े हैं। इनमें न हुस्न है न छाँव, सख़्त खुरदरे तने और टहनियों पर गिद्धों के झुण्ड, सड़क साफ़ सीधी और सख़्त है। मुतवातिर नौ साल से मैं इस पर चल रहा हूँ, न इसमें कभी कोई गढ़...
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