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नज़्म
शिकवा
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
मिरा बाबा मुझे ख़ामोश आवाज़ें सुनाता था
वो अपने-आप में गुम मुझ को पुर-हाली सिखाता था