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नज़्म
बहुत दिनों बा'द
तिरी मुलाक़ात की धनक से दहकती रातें
उजाड़ आँखों के प्यास पाताल की तहों में
मोहसिन नक़वी
नज़्म
नज़राना
मुस्कुरा देती हो रस्मन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है
कैफ़ी आज़मी
ग़ज़ल
बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तिरे अफ़्साने की
वो शफ़क़ है कि धनक है कि हिना है क्या है