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ग़ज़ल
किसी और को मिरे हाल से न ग़रज़ है कोई न वास्ता
मैं बिखर गया हूँ समेट लो मैं बिगड़ गया हूँ सँवार दो
ऐतबार साजिद
नज़्म
आख़िरी लम्हा
तुम इस ज़मीन को कुछ और भी सँवार सको
अमल तुम्हारा ये तौफ़ीक़ दे सके तुम को